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श्रीविष्णुगीता।


अतीन्द्रियाध्यात्मराज्यस्थितं विषयगह्वरम् ।
लौकिकी रीतिमाश्रित्य वर्णयेद् याऽतिसंस्फुटम् ।। ९७ ॥
तथा समाधिगम्यानां भावानां प्रतिपादिका ।
सा पूर्णा लौकिकैस्तद्वद्रसैर्भाषाऽस्ति लौकिकी ॥ १८ ॥
इयं राजसिकायैव साधकायाधिकारिणे ।
सूतेऽधिकं सदा भव्यं सत्यं सत्यं दिवौकसः ! ॥ ९९ ॥
प्रकाशयति या ज्ञानं कार्यकारणब्रह्मणोः ।
समाधिसिद्धभावैर्या सम्पूर्णा सर्वतस्तथा ।। १०० ॥
तत्त्वज्ञानमयी तया हि वर्णनपद्धतिः ।
ज्ञेया समाधिभाषा सा सात्त्विकायोपकारिका ॥ १०१ ।।
श्रवणं मननं तद्रनिदिध्यासनमेव च ।
एतत्रितयरूपो यः पुरुषार्थ इहोच्यते ॥ १०२ ।।
निवृत्तिमूलकं भूत्वा सक्तं ब्रह्मनिरूपणे ।


कहते हैं ॥ ९६ ।। अतीन्द्रिय अध्यात्म राज्यमें स्थित गूढ़ विषयको लौकिकरीतिका आश्रय लेकर जो अच्छीतरह वर्णन करे तथा समाधिगम्य भावोंकी प्रतिपादिका हो और इसी तरह लौकिक रसोंसे भी पूर्ण हो वह भाषा लौकिकी भाषा है ॥ ९७-६८ ॥ हे देवतागण ! यह भाषा राजसिक अधिकार वाले ही साधकके लिये सदा अधिक कल्याण पैदा करती है, यह सत्य है सत्य है ॥ ६ ॥ जो भाषा कार्य ब्रह्म और कारण ब्रह्मके ज्ञानको प्रकाशित करदेती है तथा जो भाषा सर्वत्र समाधिसिद्ध भावोंसे पूर्ण हो और इसी तरह जो वर्णनपद्धति तत्त्वज्ञानमयी हो उसको समाधिभाषा जानना चाहिये । वह सात्त्विक अधिकारीके लिये हितकरी है ॥१००-१०१॥ श्रवण मनन और निदिध्यासन, यह जो त्रितयरूप पुरुषार्थ जगत्में कहा जाता है वह सब त्रितयरूप पुरुषार्थ जब निवृत्ति