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श्रीविष्णुगीता।



प्रवृत्तिमूलिका चैव जिज्ञासामूलिका परा।
विचारहीनसंस्कारमूलिका त्वन्तिमा मता ॥ ८४ ॥
वेदेष्वथ पुराणेषु तन्त्रेऽपि श्रुतिसम्मते ।
भयानकं रोचकं हि यथार्थमिति भेदतः ॥ ८५ ॥
वाक्यानि त्रिविधान्याहुस्तद्विदो मद्विभावकाः।
र श्रूयतां दत्तचित्तैर्हि तत्राऽस्त्येवं व्यवस्थितिः ॥ ८६ ॥
पापाचाऽज्ञानसम्भूताद्विषयाभीतिकृद्वचः।
भयानकमिति प्राहुर्ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ८७ ।।
सुकृतेऽध्यात्मलक्ष्ये च रुचिकृद्वचनं सुराः !
रोचकं तद्धि विज्ञेयं श्रुतौ तन्त्रपुराणयोः ॥ ८८ ॥
अध्यात्मतत्त्वसंश्लिष्टं तत्त्वज्ञानोपदेशकम् ।
नामक वचो यथार्थं सम्प्रोक्तं यूयं जानीत निर्जराः ॥ ८९ ॥
भयानकं वचो नित्यं तामसायाधिकारिणे ।


प्रवृत्ति और जिज्ञासामूलक श्रद्धा राजसी है और विचारहीनसंस्कारमूलक श्रद्धा तामसी कहीगई है ।। ८४ ॥ वेद, पुराण और श्रुतिसम्मत तन्त्रोंमें भयानक रोचक और यथार्थ इन भेदोसे तीन प्रकारके वाक्य मेरे भावोंसे भावित तत्त्ववेत्ताओंने कहे हैं। इस विषयमें निम्नलिखित प्रकारसेही व्यवस्था है सो चित्त लगाकर सुनिये ।।८५८६॥ पापसे और अज्ञानसम्भूत विषयसे डर दिखानेवाले जो वचन हैं तत्त्वदर्शी ज्ञानिगण उनको भयानक कहते हैं ॥ ८७ ॥ हे देवगण ! पुण्यमें और अध्यात्म लक्ष्यमें रुचि उत्पन्न करनेवाले जो वचन वेद तन्त्र और पुराणों में हैं उनको रोचक जानना चाहिये ॥ ८ ॥ अध्यात्मतत्त्वसे युक्त और तत्त्वज्ञानका उपदेश देनेवाले वचनको हे देवगण ! यथार्थ वचन कहते हैं ऐसा आप जानिये ॥८६॥ हे विबुधोत्तमो ! भयानक वचन सदाही तामसिक अधिकारीके लिये,