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श्रीविष्णुगीता।


श्रद्धावान् साधको यश्च भोगमैहिकमेव हि ।
विशेषतः समीहेत दम्भाहारसंयुतः॥५८॥
इष्टं वेदविधिं हित्वा मदुपासनतत्परः ।
विज्ञेयो लक्षणादस्मात् तामसः स उपासकः ॥ ५९ ।।
यः श्रद्धालुर्विशेषेण पारलौकिकमेव हि ।
सुखमिच्छंस्तथा शीलगुणराशियुतो यदि । ६० ।।
वेदानुसारतः सक्तो मदुपास्तौ हि साधकः ।
राजसः स हि विज्ञेय उपासक इति स्मृतिः ॥ ६१॥
सात्त्विक्या श्रद्धया युक्तो भाग्यवान् विबुधर्षभाः ।
वितृष्णो लौकिकाभोगात्तद्वद्वै पारलौकिकात् ॥ १२ ॥
साधकोऽनन्यया वृत्त्या ज्ञानतो निरतः सदा ।
मदुपास्तौ स विज्ञेयः सात्त्विकोपासको वरः॥ ६३॥
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं वित्त सात्त्विकम् ॥ ६४ ॥


जो श्रद्धावान् साधक ऐहलौकिक भोगकी ही विशेषरूपसे इच्छा करे, दम्भ और अहङ्कारसे युक्त हो. और उपयुक्त वेदविधिका त्याग करके मेरी उपासनामें तत्पर हो, इन लक्षणोंसे उस उपासकको तामसिक उपासक जानना चाहिये ॥५-५६ ॥ जो श्रद्धालु साधक पारलौकिक सुखको ही विशेषरूपसे चाहता हुआ यदि शीलगुणोंसे युक्त होकर वेदविधिके अनुसार मेरी उपासनामें आसक्त रहता है तो उसको राजसिक उपासक जानना चाहिये, ऐसा स्मृतिकारोंका मत है ॥ ६०-६१ ॥ हे देवश्रेष्ठों ! जो भाग्यवान् साधक सात्त्विकी श्रद्धासे युक्त होकर ऐहलौकिक और पारलौकिक भोगोंकी तृष्णासे रहित होता हुआ ज्ञानपूर्वक अनन्यवृत्तिसे मेरी उपासनामें सदा तत्पर रहता है उसको श्रेष्ठ सात्त्विक उपासक जानना चाहिये ॥ ६२-६३ ॥ जिस ज्ञानके द्वारा विभक्त रूप सब भूतोंमें अविभक्त, एक और विकारहीन भाव ज्ञानी देखता है उस ज्ञानको सात्त्विक ज्ञान जानो ॥ ६४॥