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श्रीविष्णुगीता।


अर्त्तानां तामसी सा स्याज्जिज्ञासूनाञ्च राजसी ।
सात्त्विक्यार्थिनां ज्ञेया उत्तमा सोत्तरोत्तरा ॥ १ ॥
भूतप्रेतपिशाचादीनासुरं भावमाश्रितान् ।
अर्चन्ति तामसा भक्ता नित्यं तद्भावभाविताः ॥ ५२ ।।
सकामा राजसा ये स्युः ऋषीन् पितॄश्च देवताः।।
बहीर्दैवीश्च मे शक्तीः पूजयन्तीह ते सदा ॥ ५३॥
केवलं सात्त्विका ये स्युर्मद्भक्ताः साधका इह ।
त एव ज्ञात्वा मद्रूपं मम भक्तौ सदा रताः ॥ ५४॥
पञ्चानां सगुणानां ते मद्रपाणां समाश्रयात् ।
मद्ध्यानमग्नास्तिष्ठन्ति निर्गुणं ह्यथवा मम ॥ ५५ ॥
सच्चिदानन्दभावं तं भावं परममाश्रिताः ।
मम ध्यानाम्बुधौ मग्ना नन्दन्ति नितरां सुराः । ॥५६॥
ज्ञानी भक्तस्तु भगवद्रूप एव मतो यतः।
गुणातीतस्य तस्यात्र न निवेशो विधीयते ॥ ७ ॥


आर्तभक्तोकी भक्ति तामसी, जिज्ञासु भक्तों की भक्ति राजसी और अर्थार्थी भक्तोंकी भक्ति सात्त्विकी जानना चाहिये। इन तीन प्रकारकी भक्तियों में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है ॥५१॥ तामसिक भक्त आसुरीसम्पत्तियुक्त भूत प्रेत पिशाचादिकी उपासना तत्तद्भावोंमें भावित होकर नित्य करते हैं ॥५२॥ सकाम राजसिक भक्त ऋषि देवता और पितर एवं मेरी बहुतसी दैवीशक्तियोकी उपासना सदा करते हैं ॥५३॥ इस संसारमें केवल जो साधक मेरे सात्त्विक भक्त है वेही मेरे रूपको जानकर सदा मेरी भक्ति में तत्पर रहते हैं ॥ ५४॥ वे मेरे पांच सगुण रूपोंके आश्रयसे मेरे ध्यानमें मग्न रहते हैं अथवा मेरे निर्गुण परमभावरूप उस सच्चिदानन्द भावका आश्रय करके मेरे ध्यानरूप समुद्र में मग्न होकर हे देवगण ! अत्यन्त आनन्द उपभोग करते हैं ॥ ५५-५६ ।। और चतुर्थ ज्ञानी भक्त तो भगवद्रूपही है क्योंकि वह गुणातीत है अतः उसका यहां विचार नहीं किया गया है ॥१७॥