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श्रीविष्णुगीता।


अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥४४॥
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥ ४ ॥
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् |
मोहादारभ्यते कर्म यत्ततामसमुच्यते ॥ ४६॥
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्धयसिद्धयोनिर्विकारः कर्त्ता सात्त्विक उच्यते ॥४७॥
रागी कर्मफलपेप्सुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्त्ता राजसः परिकीर्तितः॥ ४८ ।।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोऽनैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।। ४९ ।।
उपास्तेः प्राणरूपा या भक्तिः मोक्ता दिवौकसः ।
गुणत्रयानुसारेण सा त्रिधा वर्तते ननु ॥ ५० ॥ी


द्वारा नियमितरूपसे विहित, आसक्तिशून्य और रागद्वेषरहित होकर जो कर्म किया जाता है उसे सात्विक कर्म कहते हैं ॥४४॥ फलाकाङ्क्षी वा अहङ्कारयुक्त व्यक्तियोंके द्वारा बहुत आयाससे जो कर्म कियाजाता है उसको राजस कहते हैं ॥ ४५ ॥ परिणाममें बन्धन, नाश, हिंसा और सामर्थ्य इन सबकी उपेक्षा करके मोहवश जो कर्म प्रारम्भ किया जाता है उसको तामस कहते हैं ॥ ४६ ॥ आसक्तिशून्य, "अहं" इस अभिमानसे शून्य, धैर्य और उत्साहयुक्त, सिद्धि और असिद्धिमें विकारशून्य कर्ता सात्विक कहाजाता है १७॥ विषयानुरागी, कर्मफलाकाङ्क्षी, लोभी, हिंसाशील. अशुचि, (लाभालाममें ) आनन्द और विषादयुक्त कर्ता राजस कहा जाता है ॥ ४८॥ इन्द्रियासक्त, विवेकहीन, उद्धत, शठ, निष्कृतिशून्य, आलस्य युक्त, विषाद युक्त और दीर्घसूत्री कर्त्ता तामस कहाजाता है॥४६॥ हे देवगण! उपासना की जोप्राणरूपा भक्ति कही गई है वह भक्ति तीन गुणोके अनुसार निश्चय तीन प्रकारको है॥५०॥