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श्रीविष्णुगीता।


प्रकाशश्च प्रवृत्तिश्च मोहमेव च निर्जराः !
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ २६ ॥
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २७ ॥
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥२८।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्बारम्भपरिसागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २१ ॥
माञ्च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ३० ॥


मुक्त होकर देही परमानन्दको प्राप्त हो जाता है॥२५॥ हे देवतागण ! प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह ( तीनों गुणोंके यथाक्रम कार्य ) से सब गुणकार्य प्रारम्भ होनेपर जो व्यक्ति द्वेष नहीं करता है और इनके निवृत्त होनेपर जो इनमें इच्छा नहीं रखता है वह गुणातीत कहाता है ॥ २६ ॥ जो उदासीन अर्थात् केवल साक्षीरूपसे स्थित है और गुणोंसे जो विचलित नहीं होता है और गुणसमूह अपना अपना कार्य करते हैं ऐसा समझकर जो स्थिर रहता है और स्वयं चेष्टा नहीं करता है वह गुणातीत कहाता है ॥ २७ ॥ जिसको सुखदुःख समान हैं, जो आत्मामें अवस्थित है, जिसके लिये मिट्टीका ढेला पत्थर और सुवर्ण सब समान हैं. जिसके निकट प्रिय और अप्रिय दोनों समान हैं, जिसने अपनी इन्द्रियोंको जय करलिया है और जिसके निकट निन्दा और स्तुति दोनों समान हैं वह गुणातीत कहाता है॥२४॥ जो मान अपमान में समभाव रखता है, जो मित्र और शत्रुके विषयमें समभाव रखता है और सब कर्म्मोके आरम्मका त्याग करनेवाला है अर्थात् जो नवीन कर्म्म नहीं करता वह गुणातीत कहाता है ॥ २६ ॥ और जो एकान्त भक्तियोगके द्वारा मेरी सेवा करता है वह इन गुणों को विशेषरूपसे अतिक्रमण करके