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श्रीविष्णुगीता।


रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते ॥ २० ॥
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥२१॥
सत्त्वात् सजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ २२ ॥
ऊध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ २३ ॥
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ २४ ।।
गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २५ ॥


रजोगुणकी वृद्धि के समय मृत्यु होनेपर कर्मासक्त मनुष्यलोकमें जन्म होता है एवं तमोगुण बढ़नेपर मृतव्यक्ति (पशु प्रेत आदि) मूढ़ योनियों में जन्म लेता है ॥ २० ॥सुकृत अर्थात् सात्विक कर्मका सात्विक और निर्मल फल है, राजसकर्मका फल दुःख और तामस कर्मका फल अज्ञान अर्थात् मूढ़ता है, ऐसा ज्ञानीलोग कहते हैं ॥ २१ ॥ सत्त्वसे ज्ञानोत्पत्ति होती है,रजसे लोभ उत्पन्न होता है और तमोगुणसे प्रमाद अविवेक और अज्ञान उत्पन्न होता है ॥ २२॥ सत्त्वप्रधान व्यक्ति उर्द्धलोकको जाते है, रजोगुण प्रधान व्यक्ति मध्यलोकमें रहते हैं और निकृष्टगुणावलम्बी तामसिक व्यक्ति अधोलोकमें जाते हैं ॥२३ ॥ जब ज्ञानी व्यक्ति गुणके अतिरिक्त और किसीको कर्ता करके नहीं देखता है और गुणसे परे जो गुणका दर्शक आत्मा है उसको जानता है वह मुझको प्राप्त होजाता है ॥ २४ ॥ देहसे उत्पन्न इन तीनों गुणोंको अतिक्रमण करके जन्ममृत्युजरारूप दुःखोंसे