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श्रीविष्णुगीता।


सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्माणि चामराः !
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ १४ ॥
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं प्रभु भवत्यलम् ।
 रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥१५॥
सर्व्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ १६ ॥
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे विबुधर्षभाः ! ॥ १७ ।। ।
अप्रकाशोऽप्रत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे सुरसत्तमाः ! ॥ १८ ॥
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान् प्रतिपद्यते ॥ १० ॥


॥ १३ ॥ हे देवतागण ! सत्त्वगुण जीवको सुखमें आबद्ध करता है, रजोगुण कर्ममें आबद्ध करता है और तमोगुण ज्ञानको आवरण करके प्रमादसे आबद्ध करता है ॥ १४ ॥ रज एवं तमोगुणको दबा करके सत्त्वगुण बलवान् होता है, सत्त्व एवं तमोगुणको परास्त करके रजोगुण प्रबल होता है और सत्त्व एवं रजोगुणको दबाकरके तमोगुण प्रबल होता है ॥ १५ ॥ जब इस देहमें श्रोत्रादि सब द्वारोमें ज्ञानमय प्रकाश होता है तब सत्त्वगुणकी विशेष वृद्धि हुई है ऐसा जानना चाहिये ।। १६ ॥ हे देवतागण ! लोभ, प्रवृत्ति अर्थात् सर्वदा सकाम कर्म करनेकी इच्छा, कर्म्मौका आरम्भ अर्थात् उद्यम, अशम अर्थात् अशान्ति एवं स्पृहा अर्थात् विषयतृष्णा, ये सब रजोगुण बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं ॥१७॥ हे देवश्रेष्ठो ! विवेकभ्रंश, उद्यमहीनता, कर्तव्यके अनुसन्धानका न रहना और मिथ्या अभिमान ये सब तमोगुणके बढ़ने पर उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥ यदि सत्त्वगुणके विशेषरूप. से बढ़नेपर जीव मृत्युको प्राप्त हो तब वह ब्रह्मवेत्ताओंके प्रकाशमय लोकों को प्राप्त होता है अर्थात् उसकी उत्तम गति होती है ॥ १२ ॥