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श्रीविष्णुगीता।


कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गणैः ॥ ११५ ॥
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ ११६ ।।
शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥ ११७ ॥
कृषिगोरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।। ११८ ॥
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभतेऽखिलाः ।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं श्रूयतां विन्दते यथा ॥ ११९ ॥
यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति साधकः ॥ १२० ॥
श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥१२१ ।।


जन्म के संस्कार से उत्पन्न गुण द्वारा विशेषरूपसे विभक्त हैं ॥११५॥ शम, दम, तपस्या, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान विज्ञान और आस्तिक्य ये सब ब्राह्मणगण के स्वाभाविक कर्म हैं ॥ ११६॥ शौर्य, तेज. धृति, दक्षता, युद्ध से नहीं भागना, दान और प्रभुताकी शक्ति, ये सब क्षत्रियजातिके स्वाभाविक कर्म हैं ॥ ११७॥ कृषि, पशुपालन और वाणिज्य, ये वैश्यजातिके स्वाभाविक कर्म हैं और परिचर्यात्मक कर्म शूद्रजातिका भी स्वाभाविक कर्म है ॥ ११८ ॥ अपने अपने कर्ममें निष्ठावान् सब व्यक्ति सिद्धिको प्राप्त करते हैं। स्वकर्ममें निरत व्यक्ति जिस प्रकार से सिद्धिको प्राप्त करता है सो सुनो ॥११॥ जिनसे जीवोंकी प्रवृत्ति अर्थात् चेष्टाका उदय होता है और जो इस सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त हैं, स्वकर्मके द्वारा साधक उनकी अर्चना करके सिद्धि प्राप्त करता है। १२० ॥अपना धर्म यदि सदोष भी होतो वह पूर्णरूपसे अनुष्ठित परधर्मकी अपेक्षा श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से निश्चित कर्मको करताहुआ जीवपापको प्राप्त नहीं होता है ॥ १२१ ॥