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श्रीविष्णुगीता।


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्रयं त्यजेत् ॥ १०९ ॥
एतैविमुक्तो जीवस्तु तमोद्वारैस्त्रिभिः खलु ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ ११० ॥
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्त्तते कामकारतः।।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥ १११ ॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं वः कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हथ ।। ११२॥
दैवीभावस्य रक्षायै आसुरीभावतो भयात् ।
मयैव वर्णधर्मस्य कृता सृष्टिर्दिवौकसः ।। ११३ ।।
प्रतिरोधको वर्णधर्मः सत्त्वविवर्द्धकः ।
स्वधर्मरक्षकस्तद्वदैवीसम्पत्प्रवर्तकः ॥ ११४ ॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणाञ्च सुधाभुजः !।


काम, क्रोध और लोभ, नरकके ये तीन प्रकारके द्वार हैं, ये तीनों आत्मज्ञानके नाशक है इस कारण इन तीनोको त्याग कर देना चाहिये ॥ २६॥ नरकके द्वाररूपी इन तीनोसे ही विमुक्त जीव अपना मङ्गल करनेवाला आचरण करता है और तदन्तर परमगतिरूपी मोक्षको प्राप्त करता है ।। ११०॥जो व्यक्ति शास्त्रविधिको त्याग करके स्वेच्छानुकल ' कार्य में प्रवृत्त होता है वह सिद्धि शान्ति और मोक्षको प्राप्त नहीं हो सका॥१११॥ इस कारण इस विश्वमें यह कार्य है और यह अकार्य है इसकी व्यवस्था करने में शास्त्रही आपके लिये प्रमाण है । शास्त्रविधानोक्त कर्मको जानकर उसको कर सक्ते हो॥११२॥ हे देवगण ! आसुरी भावके भयसे दैवी भाव की रक्षा करनेके लिये मैंने ही वर्णधर्मकी सृष्टि की है ॥ १३ ॥ वर्णधर्म प्रवृत्तिरोधक सत्वगुणवर्द्धक स्वधर्मरक्षक और देवीसम्पत्तिप्रवर्तक है ॥ १२४ हे देवगण ! ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्रके कर्मसमूह पूर्व