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श्रीविष्णुगीता।



आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ १०३ ॥
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ १०४ ॥
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ १०५ ॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधञ्च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥ १०६ ।।
तानहं द्विपतः क्रूरान् संसारे प्राणिनोऽधमान् ।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥ १०७ ॥
आसुरी योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि ।
माममाप्यैव गीर्वाणास्ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥ १०८ ॥


और कौन है, में यज्ञ करूंगा, मैं दान करूँगा, मैं हर्षको प्राप्त होऊंगा इस प्रकारसे वे अज्ञानसे विमोहित व्यक्तिगण अनेक विषयों में अपने चित्तको फसाये हुए विक्षिप्त रहते हैं और मोहमय जालसे आवृत होकर और कामभोगमें आसक्त होकर अपवित्र नरकमें पड़ते हैं ॥१०१-१०४॥ अपने आपकाही बड़े और पूज्य मानते हुए, अविनयी, धनादिकके अभिमानसे अभिमानित और गर्वित होकर वे दम्मके साथ नाममात्रके यज्ञोद्वारा अविधिपूर्वक यजन किया करते हैं ॥ १०५॥ अहङ्कार, बल, दर्प, काम और क्रोधको अवलम्बन करते हुए अपने देहमें और औरोंके देह में रहनेवाला जो में हूँ उससे द्वेष करते हुए सच्चे पथके चलनेवाले साधुलोगोंके गुणोंकी निन्दा किया करते हैं 108॥में संसारमे मरेी हिसा करनेवाले इन सब क्रूर अधम अशुभ व्यक्तियोंको आसुरीयोनियोमे ही निरन्तर गिराया करता हूँ॥१०७॥ हे देवतागण ! वे मूढ़गण जन्म जन्ममें आसुरीयोनि प्राप्त करके मुझे प्राप्त न करकेही और भी अधमगतिको प्राप्त होते हैं ॥१०॥