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श्रीविष्णुगीता।


एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयायं जगतोऽहिताः ॥ ९७ ॥
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वा सद्ग्राहान् प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ ९८ ॥
चिन्तामपरिमयाञ्च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥ ९९ ॥
आशापाशशतैर्वद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ॥१०० ॥
इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥ १०१॥
असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान सुखी ।। १०२ ।।


स्त्री पुरुषके कामसे उत्पन्न है ॥ ९६ ॥ ये सब अल्पबुद्धि असुरगण ऐसे विचारोको आश्रय करके मलिनचित्त उग्रकर्मा और अहितकारी होकर जगत्के नाशके लिये उत्पन्न होते हैं ॥ ७॥ वे लोग पूर्ण नहीं होनेवाली कामनाओको आश्रय करके, दम्भ अभिमान और गर्वसे युक्त होकर, मोहसे दुराग्रहोंको धारण करके अपवित्र व्रतोको धारण करते हुए (अकार्योमें) प्रवृत्त हुआ करते हैं ॥८॥ मरणकालपर्यन्त व्यापिनी अपरिमित चिन्ताको आश्रय करते हुए कामभोगपरायण होकर "यह कामभोगही परमपुरुषार्थ है" ऐसानिश्चय करते हुए सैकड़ो आशारूपी पाशोंमें बंधकर और कामक्रोधपरायण होते हुए वेलोग कामभोगके लिये अन्यायपूर्वक अर्थसञ्चयकी इच्छा करते हैं 188-१००॥आज मुझको यह लाभ हुआ, यह मनोरथ प्राप्त होगा,मेरा यह धनहै और यह धन भी मेरा होगा, मेरे द्वारा इस शत्रुका नाश हुआ है, और शत्रुओंका भी नाश करूंगा, मैं ईश्वर हूं, मैं भोगी हूं, मैं सिद्ध हूं, मैं बलवान् हूं, मैं सुखी हूँ, मैं धनवान् हूं, मैं कुलीन हूं, मेरे समान