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श्रीविष्णुगीता।


भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य निर्जराः ! ॥ ९१ ॥
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानञ्चाभिजातस्य देवाः ! सम्पदमासुरीम् ॥ ९२ ॥
दैवी सम्पद्रिमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
नैव शोचत भो देवाः ! दैवीं सम्पदमास्थिताः ॥९३॥
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च ।
देवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं शृणुतामराः ! ॥ ९४ ॥
प्रवृत्तिञ्च निवृत्तिञ्च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ ९५ ।।
असत्यमप्रतिष्ठश्च जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत् कामहैतुकम् ॥ ९६ ॥


पूज्य होनेके अभिमानका अभाव, ये सब धर्मवृत्तियां दैवी सम्पत्ति- वाले व्यक्तियों में हुआ करती हैं ॥ ८६-१ ॥ हे देवगण ! दम्भ, दर्प, अहङ्कार, क्रोध, निष्ठुरता, अविवेक, ये सब पाप सम्बन्धीय वृत्तियां आसुरी सम्पत्तिवाले व्यक्तियों में हुआ करती हैं ॥ १२॥ दैवी सम्प त्तियां मोक्षका कारण होती हैं और आसुरी सम्पत्तियां बन्धनका कारण हुआ करती हैं। इस कारण हे देवतागण ! आपलोग चिन्ता ही न करो क्योंकि आपलोग दैवी सम्पत्तिमें स्थित हो ॥ ९३ ॥ हे अमरगण ! इस संसारके प्राणियोंमें दैवीभाव और आसुरीभाव रूपसे दोप्रकारकी सृष्टि है । इनमेंसे दैवी भावका विस्तारित विवरण कहागया है अब आसुरी भावका विवरण मुझसे सुनो॥६॥ आसुरी प्रकृत्ति वाले व्यक्तिगण प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंको नहीं जानते हैं इस कारण उनमें न शौच है नआचार है और न सत्यहै॥५॥ असुरभावापन्न लोग कहते हैं कि यह जगत् असत्य है, धर्माधर्म व्यवस्थाशून्य अप्रतिष्ठ है, ईश्वर शून्य है, विनापरम्परा सम्बन्धके यूंही अचानक उत्पन्न हुआ है, इसका और कुछभी कारण नहीं है केवल