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श्रीविष्णुगीता।


एवं त्रयीधर्ममनुमपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ।। ८५ ॥
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ।। ८६ ।।
सम्पत्तिमासुरीं प्राहुरधर्मस्य विवर्द्धिनीम् ।
धर्मप्रवर्द्धिनी दैवीं सम्पत्तिं तद्वदेव हि ।। ८७॥
तस्मात्सर्वैहि युष्माभिर्देवैः श्रेयोऽभिकाङ्क्षिभिः ।
कर्त्तव्य आश्रयो दैव्याः सम्पत्तेरेव सर्वदा ॥ ८८ ॥
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ ८९ ।।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥ ९० ॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।


पर मृत्युलोकमें लौट आते हैं और वेदत्रयविहित धर्म्मोको अवलम्बन करके भोगकी इच्छा करते हुए (आवागमनचक्रमें आया जाया करते हैं ॥ ८५ ॥ मैंही सब यज्ञोंका भोक्ता और प्रभु हूँ परन्तु वे लोग मेरे यथार्थ स्वरूपको नहीं जानते हैं इस कारण उनकी पुनरावृत्ति होती है ॥ ८६ ॥ आसुरी सम्पत्तिको अधर्म वर्धिनी कहते हैं और उसी प्रकार दैवी सम्पत्तिको धर्मवर्द्धिका कहते हैं इस कारण सर्वदा कल्याण चाहनेवाले आप सबको दैवी सम्पत्तिका ही आश्रय लेना उचित है ॥ ८७-८८ ॥ हे देवतागण ! भयशून्यता, चित्तकी प्रसन्नता, आत्मज्ञानके उपायोंमें निष्ठा, दान इन्द्रियसंयम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोधका न होना, त्याग, शान्ति, खलताका त्याग, सब भूतोंपर दया, लोभका त्याग, अहङ्कारका त्याग, ह्री अर्थात् पापकर्म से लज्जा, चपलताका त्याग, तेजस्विता, क्षमा, धैर्य, शौच, द्रोहका त्याग और अपने