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श्रीविष्णुगीता।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यस्त्रिदिवौकसः ! ॥ ८० ॥
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान् वित्त तान् सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यते ॥ ८१ ॥
श्रेयान् द्रव्यमयाद यज्ञाज् ज्ञानयज्ञोऽमृतान्धसः ! ।
सर्वं कार्माखिलं देवाः ! ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ८२ ॥
अश्रद्दधाना जीवा वै धर्मास्यास्य सुधाशनाः ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ८३ ॥
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापाः,
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक
मश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान ।। ८४ ॥
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति । -


यज्ञानुष्ठानसे रहित हैं न उनका इहलोक है और न उनका परलोक ही है ॥७९-८०॥ ब्रह्मके जाननेवालोके मुखसे इसप्रकारसे बहुप्रकारके यज्ञोका विस्तार हुआ है उन सबको कर्म से उत्पन्न जानो, ऐसा जानकर तुम मुक्तिको प्राप्त होगे ॥ १ ॥ हे अमृतभोजी देवतागण ! दव्यमय यज्ञसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है क्योंकि ज्ञानमें ही सब कर्म्मोकी पूर्णरूपसे परि समाप्ति हुआ करती है ॥८२॥ हे सुधाके पान करनेवाले देवतागण ! इस धर्ममें अश्रद्धा करनेवाले जीवगण मुझको न प्राप्त करके मृत्युमय संसारमार्गमे लौट आते हैं ॥८३॥ वेदत्रयके अनसार कर्मकाण्डपरायण अर्थात् सकामकर्मीगण यज्ञद्वारा मेरा यजन करके ( यज्ञशेषरूपी) सोमपान करते हुए और निष्पाप होते हुए स्वर्गगतिकी प्रार्थना करते हैं, वे लोग पुण्यस्वरूप इन्द्रलोकमें पहुंच कर वहां दिव्य देवभोगसमूह भोग करते हैं ॥ ८४ ॥ वे उन विपुल स्वर्गसुखसमूहको भोग करनेके अनन्तर पुण्य क्षीण होने