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श्रीविष्णुगीता।



भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशो देवाः ! प्रभवत्यहरागमे ॥ २९ ॥
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तो व्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्स्वपि न नश्यति ॥ ३० ॥
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥३१॥
पुरुषः स परो देवो भक्तया लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥ ३२ ॥
न च मत्स्थानि भूतानि दृश्यतां योग ऐश्वरः।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ ३३ ॥
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।


प्रारम्भमें उसी अव्यक्तस्वरूपमें ही लीन होजाते हैं ॥ २८ ॥हे देवगण ! वेही व्यक्त सचराचर सब प्राणिवर्गवारंवार जन्म ग्रहण करके रात्रिके समागम होने पर लीन होते है एवं दिनके प्रारम्भमें (अपने अपने कर्मादिके) वश होकर उत्पन्न होते हैं ॥ २६ ॥ किन्तु उस व्यक्तभावसे भीश्रेष्ठ(उसका भी कारण) अतीन्द्रिय अनादि जो एकभाव है वह सकल प्राणियोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता है। अव्यक्त अर्थात् अतीन्द्रियभाव अक्षर कहा गया है उसको परम गति अर्थात परमपुरूषार्थ कहतेहै, जिसको प्राप्त होकर पनुः प्रत्यावर्त्तित होता नहीं होता है वह मेराही परमधाम है॥३१॥ हे देवगण जिसमें भूतगण (प्राणिमात्र) स्थित है एवं जो इस सकल जगत में व्याप्त है वह परमपुरुष एकान्तभक्ति द्वारा ही जा मेरे ऐश्वरीय योगको देखो, सकलप्राणी मुझ में अवस्थित हो कर भी अवस्थित नहीं है अर्थात् मैं उनसे निर्लिप्त हूँ, मैं भूतपालक हूँ तथापि भूतगणमें मैं अवस्थित नहीं हूँ। सर्वव्यापी और महान वायु जिस प्रकार आकाशमें नित्य स्थितहै सकल हु ॥ ३३ ॥ सर्च