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श्रीविष्णुगीता।


तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधार्यताम् ॥ ३४ ॥
सर्वभूतानि गीर्वाणाः ! प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ३८ ॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ३६॥
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति दिवौकसः ।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ ३७॥
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनाऽनेन वै देवाः ! जगद्विपरिवर्त्तते ॥ ३८ ॥
न मे विदर्भवन्तो हि प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि वो देवाः ! महर्षीणाञ्च सर्वशः ॥ ३९ ॥
यो मामजमनादिश्च वेति लोकमहेश्वरम् ।।
असंमूढः स सर्वत्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४० ॥


भत भी वैसेही मुझमें अवस्थित है ऐसा समझो ॥३४॥ हे देवगण । प्रलयकालमें सब भूतगण मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं एवं पुनः सृष्टिके प्रारम्भमें मैं उनको उत्पन्न करता हूँ ॥३५॥ मैं अपनी प्रकृतिमें अधिष्ठान करके स्वभाववश होकर कर्मादि परवश इन समस्त भूतगणकी पुनः पुनः सृष्टि करता रहता हूँ ॥३६॥ हे देवगण ! उन सब कर्म्मोंमें अनासक्त और उदासीनवत् अवस्थित मुझको वे सब कर्म बन्धन नहीं करसक्ते है ॥ ३७ ॥ मेरे अधिष्ठानमें प्रकृति चराचर सहित विश्वको उत्पन्न करती है हे देवगण ! इस कारण जगत् वारंवार उत्पन्न होता है ॥ ३०॥ मेरा प्रभव (आविर्भाव) तुमको अवगत नहीं है, महर्षिगणको भी अवगत नहीं है क्योंकि मैं हे देवगण ! तुमलोगोंका और महर्षिगणका सर्व प्रकार आदि हूँ ॥३९॥जो मुझको अनादि, जन्मरहित, और सकल लोकोका महान ईश्वर जानता है वह सब जगह मोहरहित होकर सकल