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श्रीविष्णुगीता।


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥ ११६ ॥
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि निर्जराः!
अव्यक्तनिधनान्येव ह्येतदेवावधार्यताम् ॥ ११७ ॥
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शणृोति
श्रुत्वाऽप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥ ११८ ।।

इति श्रीविष्णुगीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
देवमहाविष्णुसम्वादे वैराग्ययोगवर्णनं नाम

प्रथमोऽध्यायः ।


परुष उन सबमें रत नहीं होते है ॥११५॥ जिस प्रकार मनुष्य जीर्ण वस्त्र परित्याग करके दूसरे नवीन वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर परित्याग करके अन्य नूतन देह धारण करता है ॥ ११६ ॥ हे देवगण ! सकल भूत प्रारम्ममें अव्यक्त (चक्षु आदिके अगोचर ) हैं, ( केवल ) बीचमे व्यक्त (प्रकाशित) हैं एवं मरणकालमें भी अव्यक्त हैं, ये सब ही आप विचार करें॥ ११७ ॥ कोई इस (आत्मा) को आश्चर्यवत् देखता है, इसी प्रकार कोई इसको आश्चर्यवत् कहता है और कोई इस को आश्चर्यवत् सुनता है और कोई सुनकर भी इसको नहीं जानता है ॥ ११॥

इस प्रकार श्रीविष्णुगीतोपनिषद्के ब्रह्मविद्यासम्बन्धी देवमहा
विष्णुसम्वादात्मक योगशास्त्रका वैराग्ययोगवर्णन
नामक प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।