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श्रीविष्णुगीता।


सृष्टिसृष्टिधारकयोगवर्णनम् ।


देवा ऊचुः॥१॥

देवाधिदेव ! हे नाथ ! भवतः कृपयाऽधुना।
ज्ञात्वा वैराग्यमाहात्म्यं तत्स्वरूपञ्च सुस्फुटम् ॥२॥
निर्भयाः स्मो वयं जाता देवास्त्वत्पदसेविनः ।'
इदानीं वर्णयन्सम्यक् सृष्टिपकरणं तथा ॥ ३ ॥
तद्रहस्यं महाविष्णो ! ज्ञापयन्यच्छ नोऽधुना ।
विवेकं तादृशं येन जानीमो विस्तराद्वयम् ॥ ४॥
का सृष्टिः कश्च सम्बन्धस्तया नस्सह सम्मतः॥ ५ ॥

महाविष्णुरुवाच ॥ ६॥

निर्गुणावस्थितावस्मि खल्वव्यक्तोऽद्वितीयकः ।
आविर्भवति मे शक्तिर्मत्त एव यदा सुराः ॥७॥


देवतागण वोले ॥१॥

 हे देवादिदेव! हे नाथ! इस समय वैराग्यकी महिमा और उसका स्वरूप प्रापकी कृपाले भलीभांति जानकर हम सब आपके चरणसेवक देवगण भयसे रहित हुए हैं । अब हे महाविष्णो! सृष्टिप्रकरण और उसका रहस्य अच्छीतरह वर्णन करके हमको ऐसा विवेक इस समय प्रदान कीजिये जिससे हम अच्छीतरह समझसके कि सृष्टि क्या है और सृष्टि के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है ॥२-५॥

महाविष्णु बोले ॥६॥

 मैं निर्गुण अवस्थामें अव्यक्त और अद्वितीय ही रहता हूँ। हे देवताणण ! जब मेरी शक्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है तय मैं महाविष्णु होकर सगुणरूपको धारण करता हूँ। मेरी शक्ति महामाया अपने