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श्रीविष्णुगीता।



उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ११० ॥
अविनाशि तु तद्वित्त येन सर्वमिदं ततम् । ।
विनाशमव्ययस्याऽस्य न कश्चित् कर्तुमर्हति ॥ १११ ॥
यदा वो मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तास्थ निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ११२ ।।
श्रुतिविप्रतिपन्ना वो यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यथ ॥ ११३ ।।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्त्तात्मा विन्दत्यात्मान यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते ॥ ११४ ॥
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तो विबुधाः ! न तेषु रमते बुधः ॥ ११५ ॥


वस्तुका विनाश नहीं होता, अर्थात् अनित्य शरीर और जगत्का अवश्य नाश होगा और नित्य वस्तु आत्माका त्रिकालमें विनाश नहीं है । तत्त्वदर्शी लोगोंने इन दोनोंका ही तत्त्व देखा है ॥ १२० ॥ जो ( उत्पत्तिनाशशील) इन सब (देहादि) में व्याप्त है उस (आत्मस्वरूप) को अविनाशी जानो । कोई भी उस अव्यय (उत्पत्तिनाशशून्य आत्मा) का विनाश नहीं कर सक्ता ॥ १११ ॥ जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप गहन दुर्ग (देहादिमें आत्मबुद्धि) को परित्याग करेगी तब तुम श्रोतव्य और श्रुत अर्थोसे वैराग्यप्राप्त होगे ॥ ११२ ॥ जब तत्त्वज्ञानसम्बन्धी उपदेशोंके सुननेसे और उनके मनन द्वारा तुम्हारी बुद्धि अविचलित होकर समाधि में उत्तमरूपसे स्थिर रहेगी तब तुम योग प्राप्त होगे ॥११३ बाह्यन्द्रियोंके सब विषयोंमें अनासक्तचित्त व्यक्ति, आत्मामें जो शान्ति सुख है उसकी प्राप्ति करता है, वह ब्रह्ममें योगके द्वारा युक्तात्मा होकर अक्षय सुख प्राप्त करता है ॥११४॥ विषयजनित जो सब सुख हैं वेनिश्चय ही दुखके हेतु है एवं आदि और अन्त विशिष्ट अर्थात् अनित्य हैं इसी कारण हे देवगण ! विवेकी