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श्रीविष्णुगीता।


दीनताजं भयं माने गुणे खलभयं खलु ।
भयं निन्दकजं शक्तौ विद्यायां वादिजं भयम् ।। १०४ ॥
स्वर्गेऽपि प्रार्थ्यमानेऽस्मिन्नीर्ष्यापतनजं भयम् ।
वैराग्यपदमेवाऽत्र तिष्ठत्यभयमुत्तमम् ॥ १०५ ॥
येनैव हि विचारेण तत्तु लभ्येत निर्जराः ।।
जगतां श्रेयसे नूनं तं ब्रवीमि निबोधत ॥ १०६ ॥
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कोमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरमाप्तिर्धीरस्तत्र न मुद्यति ॥ १०७ ॥
मात्रास्पर्शास्तु गीर्वाणाः ! शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्ताँस्तितिक्षध्वमुत्तमाः ! ॥१०८।।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं विबुधर्षभाः !।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १०९ ॥
नाऽसतो विद्यते भावो नाऽभावो विद्यते सतः।


मानमें दीनताका भय है, गुणमें खलोका ही भय है, शक्ति निन्दकका भय है, विद्यामें वादीका भय है ॥ १०४ ॥ सब लोगोंके अभीप्सित स्वर्गमें भी ईर्ष्या और पतनका भय है, केवल उत्तम वैराग्यपद ही भयरहित है ।। १०५॥ हे देवतागण ! जिस विचारके द्वारा इसकी प्राप्ति निश्चय ही होती है उसको जगत्कल्याणके लिये ही कहता हूँ सो जानो ॥१०६॥ देहाभिमानी जीवका जिस प्रकार इस देह में कौमार यौवन और वार्धक्य है देहान्तरप्राप्ति अर्थात् मृत्यु भी उसी प्रकार है ( अवस्थाभेदमात्र है) अतएव ज्ञानी उसमें मोहित नहीं होते हैं ॥१०७ ॥ हे श्रेष्ठ देवगण ! इन्द्रियोंकी वृत्ति और उनके साथ इन्द्रियोंके विषयोंका संयोग ये ही शीतोष्णादि सुख दुःखको देनेवाले हैं। ये सब आगमापायी (उत्पत्तिनाशविशिष्ट ) हैं अतएव अनित्य है उनको सहन करो अर्थात् हर्षविषाद आदिके वशीभत मत हो ॥ १०॥ हे देवश्रेष्ठो! ये सब (मात्रास्पर्श) सुख दुःखमें समभावयुक्त जिस धीर व्यक्तिको व्यथा नहीं देते हैं वह अमरत्व प्राप्त करता है ॥ १०९ ॥ अनित्य वस्तु स्थायी नहीं है और नित्य