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श्रीविष्णुगीता।


अविवेकसमुद्भूतविषयासक्तितः क्वचित् ।
लब्धुं न कोऽपि शक्नोति निर्भयत्वमिह स्वतः ॥ ९७ ॥
पुत्रमित्रकलत्रादिस्वजनाः स्वस्वकर्मणा ।
भोगार्थं युगपन्नूनमेकत्रोत्पत्तिमाश्रिताः ॥ ९८ ॥
आत्मीयत्वेन राजन्ते धुवं स्वस्वार्थसिद्धये।
संस्थाप्यानृतसम्बन्धमेषु यान्ति महद्भयम् ॥ ९९ ॥
एतदात्मीयजं दुःखं भयं चाऽज्ञानमूलकम् ।
न जायते सुखं सत्यं नश्वरात्काञ्चनादितः ॥ १०० ॥
ईदृशे नश्वरेऽर्थे हि सक्तो देही निरन्तरम् ।
विविधं दुःखमाप्नोति भयञ्चैवाऽधिगच्छति ॥ १०१ ॥
जरामृत्युभयं देहे पुत्रादौ कालजादिकम् ।
राजंतस्करजं द्रव्ये जराजं यौवने भयम् ॥ १०२ ॥
जरारोगभयं रूपे बले शत्रुभवं भयम् ।
भोगे रोगभयं नूनं कुले पतनजं भयम् ॥ १०३ ॥


अज्ञानसम्भूत विषयमें आसक्त रहनेसे कोई भी भयरहित नहीं हो सक्ता ॥ ७॥ पुत्र मित्र कलात्रादि स्वजन केवल अपने अपने कर्म भोगनेके लिये एक देशकालमें उत्पन्न होकर अपने अपने स्वार्थसिद्धिके लिये आत्मीयरूपसे प्रतीत होते हैं उनमें मिथ्या सम्बन्ध स्थापन करके देही अनेक भयको प्राप्त होता है ॥ 5-88 ॥ यह सब आत्मीयजनित भय और दुःख अज्ञानमूलक है। नश्वर कामिनी काञ्चन आदि भोगपदार्थ अपनी नश्वरताके कारण कदापि सत्य सुखको उत्पन्न नहीं करसक्ते ॥ १०० ॥ इस प्रकारके नश्वर विषयों में फंसकर देही निरन्तर अनेक प्रकारके दुःख और भय प्राप्त करता है ॥ १०१ ॥ शरीर में जरा और मृत्युका:भय है, पुत्रकलत्रादिमें कालऔर वियोगका भय है, धनमें राजा और चोरका भय है, यौवनमें वार्धक्यका भय है ॥१०२॥ रूपमें जरा और रोगका भय है, बलमें शत्रुका भय है,भोगमें रोगकाभय है, कुलमें पतित होनेका भय है ॥१०३॥