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श्रीविष्णुगीता।


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वञ्च मयि पश्यति ।
तस्याऽहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ ८४ ॥

देवा ऊचुः॥ ८५॥

देवादिदेव ! सर्वज्ञ ! सृष्टिस्थितिलयप्रभो !
त्वद्विस्मरणतो नूनं दुर्गतिर्नोऽभवत्स्वयम् ॥ ८६ ॥
आज्ञाऽस्ति भवतः सत्या जीवा अभ्यासयोगतः ।
निर्भयायां पदव्यान्तु भवन्यग्रेसरा ध्रुवम् ॥ ८७ ॥
मशो निर्भयाः सन्तस्ते जीवा भाग्यशालिनः ।
अतुलां परमां शान्तिमधिगच्छन्ति सत्वरम् ॥ ८८ ॥
तदुक्तक्रमतो देव ! दीनाश्रय ! यथा वयम् ।
प्रशान्ता निर्भयाः स्याम कृपयैव तथाऽऽदिश ॥ ८९ ॥


जोमुझको सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं कभी अन्तर्धान नहीं होता हूँ और वह भी मुझसे अदृश्य नहीं होता है ॥ ८४॥

देवतागण बोले ॥ ८५ ॥

 हे देवादिदेव ! हे सृष्टिस्थितिप्रलयकर्ता ! हे सर्वज्ञ । अब हमलोगोको यह विदित हुआ कि आपको विस्मृत होनेसे ही हमलोगोंकी यह दुर्गति हुई है ॥८६॥ आपकी आज्ञा सत्य है कि अभ्यासके द्वारा ही जीव निर्भयपदकी ओर अग्रसर होते हैं और क्रमशः भयरहित होकर परमभाग्यशाली हो परमशान्तिको शीघ्र प्राप्त करते हैं॥८७-८८ ॥ अतः हे दीनजनोके आश्रयदाता! आपके कहे हुए क्रमके अनुसार हम शान्तिको प्राप्त करके कैसे भयरहित होसकते हैं सो कृपया आज्ञा कीजिये ॥ 8 ॥