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श्रीविष्णुगीता।


भावातीतमिदं सर्वं प्राकाश्ये भावमात्रकम् ।
नास्त्यत्र संशयः कोऽपि ससं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ७८ ॥
अज्ञानादेव भीतीनामुत्पत्तिर्जायते सुराः ।।
अज्ञानमेव जन्तूनां हेतुस्तापत्रयस्य वै ॥ ७९ ॥
ज्ञानेन रहिता जीवाः साधुसौभाग्यवंचिताः।
द्रष्टुं स्मर्तृञ्च मां नित्यं कदाचिदपि नेशते ॥ ८० ॥
नूनं कर्त्तव्यनिष्ठो यो निजधर्मपरायणः ।
ज्ञानवान्स भयान्मुक्तः सयमेव ब्रवीमि वः ॥ ८१ ॥
तापत्रयं न शक्नोति कदाचित् स्पष्टुमेव तम् ।
अचिरेणैव कालेन स मुक्तिमधिगच्छति ॥ ८२॥


श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाध्यानं विशिष्यते । ध्यानात् कर्मफलत्यागस्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ ८३ ॥ और ऐक्य सबका मल है. हे देवगण ! वही ऐक्य भावातीत है यह निश्चित है॥७४-७७॥ यह सकल संसार प्रकाशरूपसे केवल भावमय है परन्तु वस्तुतः भावातीत है, इसमें कोई भी सन्दह नहीं है में सत्य २ कहता हूं ॥ ७ ॥ हे देवगण ! अज्ञानसे ही भयकी उत्पत्ति होती है, अज्ञान ही त्रितापका कारण है ॥ ७२ ॥ ज्ञानरहित जीव सौभाग्यसे वञ्चित हैं और वे मेरे दर्शन लाभ करनेमें और यहांतक कि मेरे स्मरण करने तकमें असमर्थ होते हैं ॥०॥ परन्तु में तुम्हें सत्य कहता कि जो कर्तव्यनिष्ठ और स्वधर्मपरायण होते हैं वे अतिसराुगमतासे ही आत्मज्ञान लाभ करके भयमुक्त हो जाते हैं ॥२॥पुनः त्रिताप उनको स्पर्श नहीं करसक्ता और वे शीघ्र ही मुक्तिको पाप्त करते हैं। ८२॥ अभ्यासकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञानसे ध्यान विशेष माना गया है, ध्यानसे कर्मफलोंका त्याग श्रेष्ठ है और त्यागके अनन्तर ही शान्ति होती है॥३॥