पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/२२

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श्रीविष्णुगीता।


मनोबुद्धिवचोऽतीतश्चिन्मयज्योतिरुज्ज्वलः।
परमः पुरुषः कोऽसावाविरासीत्कृपानिधिः ॥ ४॥
देवानामुपदेशैः कैः स निराकृतवान्भयम् ।
कृपया श्रावयित्वा तद्धन्यानस्मान् कुरु प्रभो ! ॥५॥
व्यास उवाच ॥६॥
द्वन्द्वात्मकोऽस्ति सर्गोऽयं दिवा रात्र्या च सन्ततम् ।
प्रभया तमसा चाऽपि ज्ञानतोऽज्ञानतो यथा ॥७॥
सुखदुःखादिभिः सम्यक् स्थूलसूक्ष्मात्मकं खलु।।
ब्रह्माण्डञ्च सदा व्याप्तमनुभूतञ्च भावुकैः ॥ ८॥
सामञ्जस्यं तथा सृष्टेर्गत्या द्वन्द्वस्वरूपया ।
दैवे जगति लिप्सन्ते प्रभुत्वमतियत्नतः।
सुरासुरविरोधस्तत्सूक्ष्मे जगति सर्वदा ॥ १० ॥


को प्राप्त करना चाहते हैं ॥ २-३॥ मन बुद्धि और वचन से अतीत. चिन्मय ज्योति, प्रकाशमान, कृपालु, परमपुरुष जो आविर्भूत हुए थे वे कौन थे और किन उपदेशों के द्वारा उन्होंने देवताओं का भय निराकरण किया था सो कृपया सुनाकर हे प्रभो ! हमलोगों को धन्य करिये ॥ ४-५॥

श्री व्यासदेव बोले ॥६॥

जैसे दिन और रात, प्रकाश और अन्धकार, ज्ञान और अज्ञानआदि से यह संसार निरन्तर द्वन्द्वात्मक है वैसेही स्थूलसूक्ष्मात्मक और अनुभव करनेवालोके द्वारा अनुभूत यह ब्रह्माण्ड सदा सुखदुःखादिसे सम्यक् परिव्याप्त है ॥७-८॥ इस संसारका स्वरूप द्वन्द्वमय होनेके कारण सृष्टिकी समताको सब ओर और सब तरह रक्षा करनेके लिये देवता और असुर अति यत्नसे दैवजगत अपने अपने प्रभुत्वको चाहते है इसी कारण सूक्ष्म जगत्में देवता