पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१७४

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( २ ) सुअवसर मिलेगा, त्यों त्यों वह जोर शोर से यह काम करेगा। उसका विश्वास है कि इसी उपायसे देशका सच्चा उपकार होगा और अन्तमें भारत पुनः अपने गुरुत्वको प्राप्त कर सकेगा। इस उद्देश्य साधनके लिये सुलभ दो ही मार्ग हैं । (१) उप- देशकों द्वारा धर्मप्रचार करना, और (२) धर्मरहस्य सम्बन्धी मौलिक पुस्तकोंका उद्धार व प्रकाश करना। महामण्डल ने प्रथम मार्गका अवलम्बन आरम्भसे ही किया है और अब तो उपदेशक महाविद्यालय स्थापित कर महामण्डलने वह मार्ग स्थिर और परिष्कृत करलिया है । दूसरे मार्गके सम्बन्धमें भी यथायोग्य उद्योग आरम्भसे ही किया जा रहा है। विविध ग्रन्थोंका संग्रह और निर्माण करना, मासिक पत्रिकाओंका सञ्चालन करना, शास्त्रीय ग्रन्थोंका आविष्कार करना, इस प्रकारके उद्योग महामण्डलने किये हैं और उनमें सफलता भी प्राप्त की है; परन्तु अभीतक यह कार्य सन्तोष- जनक नहीं हुआ है। महामण्डलने अब इस विभाग को उन्नत करने का विचार किया है। उपदेशकों द्वारा जो धर्मप्रचार होता है उस- का प्रभाव चिरस्थायी होनेके लिये उसी विषयकी पुस्तकोंका प्रचार होना परम आवश्यक है ; क्योंकि वक्ता एक दो वार जो कुछ सुना देगा, उसका मनन विना पुस्तकोंका सहारा लिये नहीं हो सकता। इसके सिवा सब प्रकारके अधिकारियों के लिये एक वक्ता कार्यकारी नहीं हो सकता । पुस्तकप्रचार द्वारा यह काम सहल हो जाता है। जिसे जितना अधिकार होगा, वह उतने ही अधिकारकी पुस्तकें पढ़ेगा और महामण्डल भी सब प्रकार के अधिकारियों के योग्य पुस्तके निर्माण करेगा । सारांश, देशकी उन्नतिके लिये, भारतगौरवकी रक्षाके लिये और मनुष्यों में मनुष्यत्व उत्पन्न करते. के लिये महामण्डलने अब पुस्तक प्रकाशन विभागको अधिक उन्नत करनेका विचार किया है और उसकी सर्वसाधारणसे प्रार्थना है कि वे ऐसे सत्कार्यमें इसका हाथ बटावें एवं इसकी सहायता कर अपनी ही उन्नति कर लेनेको प्रस्तुत हो जावें। श्रीभारतधर्ममहामण्डल के व्यवस्थापक पूज्यपादश्री १०८ स्वामी ज्ञानानन्दजी महाराजकी सहायतासे काशीके प्रसिद्ध विद्वानों के द्वारा सम्पादित होकर प्रामाणिक, सुबोध और सुदृश्यरूपसे यह ग्रन्थमाला निकलेगी। ग्रन्थमालाके जो ग्रन्थ छपकर प्रकाशिक हो चुके हैं उनकी सूची नीचे प्रकाशित की जाती है। 3B