पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१६६

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श्रीविष्णुगीता। 135 एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेविस्तरो मया ॥ ८० ॥

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदृर्जितमेव वा । तत्तदेव तु जानीत मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ ८१ ॥ अथवा बहुनेतेन किं ज्ञातेन हि वोऽमराः ।। विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।। ८२ ।। अहमात्मा सुपर्वाणः ! सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यञ्च भूतानामन्त एव च ॥ ८३ ॥ गतिर्भर्त्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् । प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ ८४ ॥ सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनञ्च । वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ ८५ ।। मनोयोगेन मां देवाः ! मद्विभूतिषु पश्यत । विभूतिविस्तार तो मैंने संक्षेपसे कहा है ॥ ८० ॥ जो जो विभूति- युक्त, श्रीमान अथवा समुन्नत सत्त्व (प्राणी ) है उस उसकोही मेरे तेजके अंशसे उत्पन्न जानो॥ १ ॥ अथवा हे अमरगण ! आपलोगों- को इसके बहुत जाननेसे क्या, मैं एक अंशसे इस सम्पूर्ण जगत्को धारण करके बैठा हूं ॥ ८२ ॥ हे देवगण ! मैं सब प्राणियों के अन्त:- करणमें स्थित आत्मा हूं और मैं ही प्राणियोंका आदि अन्त तथा मध्य भी हूं ॥ ८३ ॥ गति, भर्त्ता ( पालक ) प्रभु (नियन्ता) साक्षी (द्रष्टा) निवास (भोग स्थान) शरण ( रक्षक ) सुहृत् (हितकर्ता) प्रभव स (स्रष्टा) प्रलय(संहर्ता) स्थान (आधार) और निधान (लयस्थान) तथा अविकारी बीजरूप हूं ॥८४ ॥ मैं सबके हृदयमें सन्निविष्ट हूं, मुझसे स्मृति, ज्ञान और इन दोनोंका विलय होता है, सब वेदोंसे जानने योग्य मैंही हूं, वेदान्तकृत् अर्थात् ज्ञान- देनेवाला गुरु और वेदोको जाननेवाला मैंही हूं ॥ ५ ॥ हे विज्ञ देवतागण ! मनोयोगसे मेरी विभूतियोंमें मेरा दर्शन करो वा