पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१६५

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१४८ श्रीविष्णुगीता। अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्रः सामासिकस्य च । अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ ७४ ॥ मृत्युः सर्वहरश्चाऽहमुद्भवश्व भविष्यताम् । कीर्तिः श्रीर्वाक् च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥७॥ वृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥ ७६ ॥ द्यूतं छलयतामस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् । मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ ७७ ॥ दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् । मौनं चैवाऽस्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ।। ७८ ॥ यच्चाऽपि सर्वभूतानां बीजं तदहमस्मि वै । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ ७९ ॥ नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां सुरर्षभाः !। STTE वादियों में वाद हूं ॥ ७३ ॥ अक्षरों में अकार हूं, समासोंमें द्वन्द्व समास हूं, मैं ही अविनाशी काल हूं और विश्वतोमुख धाता अर्थात् सर्वकर्मफलप्रदाता ह॥ ७४ ॥ मैं सर्वहारी मृत्यु ह', (उत्पन्न) होने- वालोंका उत्पत्तिस्थान है और नारियोंमें कीर्ति, श्री और वाक् मैं हूँ एवं स्मृति, मेधा, धृति तथा क्षमारूप हूँ ॥७५॥ मैं सामवेदकी शाखा- औमें वृहत्साम, छन्दोंमें गायत्री छन्द, मासोंमें मार्गशीर्ष मास और ऋतुओंमें वसन्त ऋतुहूं॥६॥छलियों में द्यूत (जुआ) हूं, पराक्रमियों में सत्त्व अर्थात् पराक्रम हूं, मुनियों में मैं व्यास हूँ और कवियों में मैं उशना कवि अर्थात् शुक्र हूँ ॥ ७७ ॥ दमनकारियों में मैं दण्ड हूं, जय- की इच्छा करनेवालोंमें नीति हूं, गुह्योंमें मौन हूं और मैं ज्ञानियों में ज्ञान हूं ॥ ७८ ॥ सब भूतोंका जो बीज है वह मैं ही हूं, ऐसा चराचर भूत कोई नहीं है जो मेरे विना हो अर्थात् मैं सर्वत्र व्यापक हूं ॥ ७ ॥ हे देवश्रेष्ठो ! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है, यह १६ .