पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५४

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श्रीविष्णुगीता। देवास्तु ये सूक्ष्मशरीरमानिनो विशन्त्यहो कारणकायमानिषु॥ १९ ॥ इमे तु सर्वे प्रविशन्त्यचिन्त्ये महाप्रभावे कच तन्न विद्मः । दृष्ट्वेदृशं तेऽद्भुतकार्यमीश ! वयं विमुग्धाः खलु ते प्रभावात् ॥ २० ॥ साचिन्त्यशक्तिर्भवतो ध्रुवा किम् ? या वाङ्मनोबुद्धिभिरप्रमेया। त्वत्तो जनित्वा निजगर्भमध्ये लोकान् धरत्येव चतुर्दशालम् ।। २१ ।। ब्रह्माण्डमप्येवमनन्तपिण्ड- मयञ्च सर्ग धरते सदा सा। सर्व प्रसूते पुनरन्तकाले लीन तु तत् सा कुरुते स्वगर्भे ॥ २२ ॥ दृष्ट्वा चमत्कारमिमं न विद्मः देवताओंमें प्रवेश करते हैं और जो सूक्ष्मदेहाभिमानी देवतागण हैं वे कारणदेहाभिमानी देवताओंमें प्रवेश करते हैं ॥ १६॥ किन्तु ये सब किस अचिन्त्य महाप्रभाववानं में प्रवेश करते हैं सो हमलोग नहीं समझ रहे हैं । हे ईश ! इस प्रकार आपका अद्भुत कार्य देखकर आपके प्रभावसे हमलोग विमुग्ध हो रहे हैं ॥ २०॥ क्या वह नित्या अचिन्त्य शक्ति आपकी है ? वाणी मन और बुद्धिसे अगोचर जो शक्ति आपसेही उत्पन्न होकर चतुर्दश लोकोको अपने गर्भ में भलीभांति धारण करती है ॥२१॥ इसी प्रकार वह शक्ति अनन्त ब्रह्माण्ड और पिण्डमय सृष्टिको भी सदा स्थित रखती है, सबको उत्पन्न करती है और पुनः अन्तकालमें वह उन सबोंको अपने गर्भ में लीन करलेती है ॥ २२ ॥ हे ईश ! इस चमत्कारको देखकर हम नहीं समझ रहे हैं