पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५५

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श्रीविष्णुगीता। कथं भवत्यद्भुतमेतदीश !। किं कारणञ्चास्य पुनः क आदि- रस्य प्रवाहस्य तथाऽस्ति कोऽन्तः ॥ २३ ॥ अनन्त ! सर्वेऽनुभवाम आदरात् त्वामीश ! जन्मस्थितिनाशवर्जितम् । अनन्तवक्त्रं बहुधा स्तुतं सुरै- गन्धर्वयक्षविविधैश्च सूरिभिः ।। २४ ।। अमितशक्तियुतोऽपि भवन् भवा- नमितबाहुरसि त्वमनन्तपात् । अमितसूर्य मृगाङ्क-शिखिग्रहा- दमितनेत्रधरस्त्वमिहेश्यसे ॥ २५ ॥ त्वं तेजसां तेज इहासि चेतने चैतन्यरूपोऽसि ददासि शक्तये । शक्तिं प्रभो ! प्रेरयसे मतिं तथा । त्वत्सत्तया सर्वमिदं हि सत्त्ववत् ॥ २६ ॥ । कि यह चमत्कार कैसे हो रहा है, इसका कारण क्या है और इस प्रवाहका आदि क्या है तथा अन्त क्या है ॥ २३ ॥ हे अनन्त ! हे ईश ! हम सब भलीभांति अनुभव करते हैं कि आप उत्पत्ति, स्थिति और विनाशसे रहित हो, अनन्तमुख हो और अनेक देवता गन्धर्व यक्ष और विद्वानों के द्वारा अनेक प्रकारसे स्तुत हो ॥ २४ ॥ आप हमलोगोंको यहां अमितशक्तियुक्त होते हुए भी अनन्त वाहु एवं अनन्त पादविशिष्ट और अनन्त सूर्य चन्द्र तथा अग्निको ग्रहण करनेवाले होनेके कारण अनन्तनेत्रधारी दृष्टिगोचर हो रहे हैं ॥ २५ ॥ आप तेजोंके भी तेज हैं, चेतनमें चैतन्यरूप हैं, हे प्रभो ! आप शक्तिको शक्ति देते हैं और बुद्धिको ( सत्कर्म्मोंमें ) प्रेरित करते हैं क्योंकिआपकी सत्तासे यह समस्त विश्व यहां सत्तावान् होरहा है ॥ २६ ॥