पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५३

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- । श्रीविष्णुगीता। देवा ऊचुः ॥ १५ ॥ देवादिदेव ! त्वदचिन्त्यदेहे आद्यन्तशून्ये प्रसमीक्ष्य नूनम् । देवानृषीन् पितृगणाननन्तान् पृथक् स्थितान् विस्मयमावहामः ।। १६ ।। तवैव देहाद्भुवनानि देव ! चतुर्दशैतेषु निवासिनो हि । देवाश्च दैत्याश्च मनुष्यसङ्घा- श्चतुर्विधा भूतगणाश्च सर्वे ।। १७ ।। जाताः पृथक् सन्ति चतुर्दशस्वहो यान्त्यत्र नाशं भुवनैर्निजैः समम् । संपश्यतामीदृशमद्भुतं प्रभो ! बुद्धिर्भ्रमे मज्जति नः समाकुला ॥ १.८ ।। देवाश्च ये स्थूलशरीरमानिनो विशन्ति ते सूक्ष्मशरीरमानिषु । देवतागण बोले ॥ १५ ॥ हे देवादिदेव ! हमलोग आपके अनादि अनन्त और अचिन्त्य देहमें अनन्त देवसमूह, ऋषिसमूह और पितृसमूहको पृथक् पृथक् स्थित देखकर अवश्य ही विस्मित हो रहे हैं ॥ १६॥ हे देव ! आपके ही देहसे चतुर्दश भुवन और इनके निवासी देव, दैत्य, मनुष्यसमूह और सब चतुर्विध भूतसङ्घ उत्पन्न हुए हैं, चतुर्दश भुवनोंमें पृथक् पृथक् हैं और अहो ! अपने लोकोंके साथ इसी (आपके देहमें ) नाशको प्राप्त होते हैं । हे प्रभो ! इस प्रकार आश्चर्यको देखते हुए हमलोगोंकी बुद्धि व्याकुल होकर भ्रममें मग्न होती है ॥१७-१८ ॥ अहो ! जो स्थूलदेहाभिमानी देवतागण हैं वे सूक्ष्मदेहाभिमानी