पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१४९

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श्रीविष्णुगीता। एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च । कर्तव्यानीति मे देवाः ! निश्चितं मतमुत्तमम् ।। १३५ ।। न द्वेष्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ १३६ ॥ नहि देहभृता शक्यं त्यक्तुं काण्यशेषतः। यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥ १३७ ॥ अनिष्टमिष्टं मिश्रश्च त्रिविधं कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां कचित् ॥ १३८ । सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोधत । समासेनैव भो देवाः ! निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ १३९ ॥ बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च । शब्दादीन् विषयाँस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥ १४० ॥ विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः। किन्तु हे देवगण ! ये कर्म भी आसक्ति और फलका त्याग करके करने योग्य हैं यह मेरा निश्चित उत्तम मत है ॥ १३५ ॥ सत्वगुणशाली मेधावी संशयरहित त्यागी व्यक्ति अकुशल (दुःखजनक ) कर्ममें द्वेष नहीं करता है और न कुशल (सुखकर) कर्ममें आसक्त होता है॥१३६ ॥ क्योंकि देहधारी निःशेषरूपसे कर्म्मौका त्याग नहीं कर सकता है किन्तु जो कर्मके फलको त्याग करता है वह त्यागी कहाजाता है ॥ १३७ ॥ इष्ट (प्रिय ) अनिष्ट ( अप्रिय ) और मिश्र अर्थात् इष्टानिष्ट, यह कर्म्मका त्रिविध फल सकाम व्यक्तियोंको परकालमें होता है किन्तु सन्न्यासियोको कहीं भी नहीं होता है ॥ १३८ ॥ हे देवगण ! नैष्कर्म्यसिद्धि-प्राप्त व्यक्ति जिस प्रकार ब्रह्मको प्राप्त होता है और जो चरम ज्ञान है उसको संक्षेपसे ही सुनो ॥ १३६ ॥ विशुद्ध-बुद्धियुक्त होकर धैर्यके द्वारा बुद्धिको संयत करके शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग द्वेषको दूर करके निर्जनस्थानवासी एवं मितभोजी होकर शरीर वाणी और मनको संयत करके सदा ज्ञानयोग तत्पर होता हुआ वैराग्यको