पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१५०

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श्रीविष्णुगीता। ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ १४१ ॥ अहङ्कारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ १४२ ॥ ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु सन्न्यासं लभते परम् ॥ १४३ ॥ मां सन्न्यासेन जानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः। ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥ १४४ ॥ सर्चकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ १४५ ॥ चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः । बुद्धियोगमुपाश्रित्य मञ्चित्ताः स्यात् सर्वथा ॥ १४६ ॥ इति श्रीविष्णुगीतामूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगेशास्त्रे देवमहा- विष्णुसम्वादे ज्ञानयोगवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः । भलीभांति आश्रय करके अहङ्कार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रहका त्याग करके ममताशून्य होकर शान्त व्यक्ति ब्रह्म ही होजाता है ॥ १४०-१४२ ॥ ब्रह्मभूत और प्रसन्नचित्त व्यक्ति ( नष्ट वस्तुकेलिये ) शोक नहीं करता है और (अप्राप्त वस्तुकेलिये) आकांक्षा नहीं करता है, सब भूतोंमें समभावापन्न होकर श्रेष्ठ सन्न्यासको प्राप्त होता है, ॥१४३ ॥ में जिस प्रकारका और जो हूं सो यथार्थरूपसे सन्न्यासके द्वारा वह जानता है और मुझको यथार्थरूपसे जानकर अनन्तर प्रवेश कर जाता है॥१४४॥सर्वदा सब प्रकारका कर्म करता हुआ मत्परायण व्यक्ति मेरे अनुग्रहसे सनातन नित्यपदको प्राप्त होता ॥ १४५ ॥ (आपलोग) चित्तसे सब कर्म्मोको मुझमें अर्पण करके मत्परायण होकर बुद्धियोगका आश्रय करके सर्वथामञ्चित्त होवें॥१४॥ इस प्रकार श्रीविष्णुगीतोपनिषद्के ब्रह्मविद्यासम्बन्धी योग शास्त्रका देवमहाविष्णुसम्वादात्मक ज्ञानयोगवर्णन- PODOOR मुझमें भी प्राप्त होता है नामक षष्ठ अध्याय समाप्त हुआ।