पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१४८

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१२८ श्रीविष्णुगीता। यत्तपस्यथ भो देवाः! तत्कुरुध्वं मदर्पणम् ॥ १२९ ॥ शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यध्वे कर्मबन्धनैः । 11 सन्न्यासयोगयुक्ता हि विमुक्ता मामुपैष्यथ ॥ १३० ॥ काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्न्यासं कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥१३१॥ त्याज्यं दोषवादित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ १३२ ॥ श्रूयतां निश्चयस्तत्र त्यागे मेऽमृतभोजिनः ! । त्यागो हि विबुधश्रेष्ठाः ! त्रिविधः परिकीर्तितः ॥ १३३ ।। यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ १३४ ॥ त्यागी और अक्रिय (पूर्त्यादिकर्म रहित)व्यक्ति सन्न्यासी नहीं होता है ॥१२८॥ हे देवगण ! आपलोग जी कर्म करते हैं, जो भोजन करते हैं, जो होम करते हैं, जो देते हैं और जो तपस्या करते हैं उसको मुझमें अर्पण करें ॥ १२९ ॥ ऐसा करनेसे शुभ और अशुभ फल देनेवाले कर्मबन्धनोंसे छूट जाओगे क्योंकि आपलोग ( मुझमें फलसमर्पण- रूपी ) सन्न्यासयोगमें युक्त होनेसे विमुक्त होकर मुझको प्राप्त करेंगे ॥ १३० ॥ दूरदर्शी पण्डितलोग काम्यकर्मोंके त्यागको सन्न्यास कहते हैं और सब र्कम्मोंके फलोंके त्यागको त्याग कहते हैं ॥१३१॥ कोई कोई पण्डितलोग दोषयुक्त कर्मको त्याज्य कहते हैं और कोई यज्ञ, तप और दान त्याज्य नहीं है ऐसा कहते हैं ॥ १३२ ॥ हे अमृतभोजी देवश्रेष्ठो ! उस त्यागके विषयमें मेरा निश्चय सुनें । त्याग तीन प्रकारका कहागया है ॥१३३॥ यज्ञ, तप और दान ये तीन कर्म त्याग करनेके योग्य नहीं है ये निश्चयही कर्तव्य है, यज्ञ तप और दान विवेकियोंको भी पवित्र करनेवाले हैं ॥ १३४ ॥