पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

________________

श्रीविष्णुगीता। कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।। ४६ ।। जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।। शीतोष्णसुखदुःखेेषु तथा मानापमानयोः॥४७॥ ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।। ४८ ॥ सुहृन्मित्रायुंदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।। ४९ ॥ मय्यासक्तमनस्का हि युजाना योगमाश्रिताः। यथा ज्ञास्यथ पूर्ण मां तथा शृणुत निश्चितम् ॥ ५० ॥ ॥ ४५ ॥ कामक्रोधरहित, संयमी और आत्मतत्त्वश यतिगणके लिये सर्वत्रही मोक्ष है ; अर्थात् वे देहान्त होनेपर ही मुक्त होते हैं ऐसा नहीं है, देह रहते हुए भी वे मुक्त ही हैं ॥ ४६॥ केवल जितेन्द्रिय और प्रशान्त अर्थात् रागादिशून्य व्यक्तिका आत्मा अर्थात् अन्तःकरण शीत उष्ण, सुख दुःख, और मान अपमानमें अचल रह सकता है ॥४७॥ जिसका चित्त ज्ञान और विज्ञान द्वारा आकाक्षाहीन है जो कूटस्थ अर्थात निर्विकार है, जो जितेन्द्रिय है और जो मृत्तिकाके ढेले में पत्थरमें और सुवर्णमे समदृष्टि है ऐसा योगी युक्त कहाजाता है॥४८॥ सुहृत् (स्वभावतः हितैषी) मित्र ( स्नेहवशतः हितैषी) अरि (घातुक) उदासीन (विवाद करनेवाले दोनों पक्षोंकी उपेक्षा करनेबाला) मध्यस्थ (विवाद करनेवाले दोनों पक्षोंका हितैषी ) द्वेष्य (ष करने योग्य व्यक्ति ) बन्धु (सम्बन्धयुक्त व्यक्ति) साधु और यहांतक कि पापियोपर भी जो समबुद्धि रखनेवाला है वहीं योगियों में प्रधान है॥ ४६॥ मुझमें आसक्तचित्त होकर योगके आश्रयसे अभ्यास करते हुए जिस प्रकारसे मुझे पूर्णरूपसे निश्चयपूर्वक जान सकोगे उस प्रकारको सुनो ॥ ५० ॥ में आपलोगोको विज्ञानसहित इस ज्ञानको सम्पूर्णरूपसे कहूंगा जिसके