पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३३

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श्रीविष्णुगीता। ११३ तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ ४० ॥ विधाविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥ ४१ ॥ इहैव तैर्जितः संर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । निर्दोष हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ ४२ ॥ न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाऽप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः ।। ४३ ॥ योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योतिरेव यः । स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥ ४४ ॥ लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नदैवा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥ ४५ ॥ उसी प्रकार उनका वह ज्ञान परमात्माको प्रकाशित करदेता है । विद्या और विनयसम्पन्न ब्राह्मणपर और चाण्डालपर एवं गौ हाथी और कुत्तेपर ज्ञानीगण समदर्शी हुआ करते हैं ।। ४१ ॥ जिनका मन समभावमें स्थित है, संसारमें रहकर ही उन्होंने संसारको जीत लिया है क्योंकि समान और निर्दोषरूपसे ब्रह्म व्यापक हैं अतः वे ब्रह्मभाव में स्थित रहते हैं ॥ ४२ ॥ ब्रह्मभावमें अवस्थित. स्थिरबुद्धि और मोहहीन ब्रह्मवेत्ता व्यक्ति प्रियवस्तु पाकर हर्षित नहीं होता है और अप्रिय वस्तु पाकर विषादयुक्त नहीं होता है ॥ ४३ ॥ आत्मभावमेंही जिसको सुखबोध होता है आत्मभावमें ही जिसको आमोद होता है और आत्मभावकी ओरही जिसकी दृष्टि है वह योगी ब्रह्मभाव में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् मोक्षको प्राप्त होता है॥४४॥ पाप जिनके क्षीण होगये हैं, संशय जिनके छिन्न होगये हैं, जिनका अन्तःकरण संयमशील है और सकल प्राणिमात्रके हित करने में जो तत्पर हैं ऐसे ऋषिगण ब्रह्मनिर्वाण अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते हैं १५