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श्रीविष्णुगीता।


ज्ञानं वोऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ञातव्यमवशिष्यते ॥ ११ ॥ मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः॥५२॥ भमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥ ५३॥ अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति वित्त मे पराम् । जीवभूतां सुपर्वाणो ययेदं धार्यते जगत् ॥ ५४॥ एतधोनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधार्यताम् ।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ १५ ॥ 

मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति दिवौकसः मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥५६॥ इदं गुह्यतमं वश्चाऽनुसूयुभ्यो ब्रुवेऽधुना । जानलेनेसे जगतमें फिर कुछ जाननेका विषय अवशेष नहीं रहता है ॥५१॥ हजारों मनुष्योमें कोई एक सिद्धि के लिये यत्न करता है और अनेक यत्न करनेवाले सिद्धोंमेंसे भी कोई एक वास्तवतःमेरेस्वरूपको जानता है॥५२॥पृथिवा जल तेज वायु आकाश मन बुद्धि और अहङ्कार इन आठ प्रकारके भेदोंसे युक्त मेरी प्रकृति है।53। यह अपरा नाम्नी है। हे देवगण ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न मेरी परा नाम्नी जीवस्वरूपा एक प्रकृति है ऐसा जानो. जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है अर्थात् जो जगद्धारिका है ॥५४॥ इन्हीं मेरी प्रकृतियोंसे पंचभूतमय सकल जगत्की उत्पत्ति हुई है ऐसा जानो. मैं सकल जगत्का परमकारणस्वरूप और प्रलयस्थान हूँ।55। ५॥ हे देवगण ! मुझसे परे और कुछ नहीं है। सूत्रमें मणियोंके समान मुझमें यह सब जगत् ग्रथित है ॥५६॥ अब मैं यह वक्ष्यमाण) परमगुप्त विज्ञानसहित ज्ञान भी तुम दोषदृष्टिही.