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श्रीविष्णुगीता।


तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ ९६ ॥ तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ ९७ ॥
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ ९८ ॥
ये त्वक्षरमानिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ९९ ॥ सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥१००॥ क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं प्राणभृद्भिरवाप्यते ॥ १०१ ॥
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः।


हैं ॥ ५ ॥ सदा मुझमें अर्पित चित्त एवं प्रीतिपूर्वक मेरी उपासना करनेवाले उन भक्तोको में उस बुद्धियोग (ज्ञान ) को प्रदान करता है जिससे वे मुझको प्राप्त हो जाते है ॥ १६॥ उनके हितके अर्थही मैं उनकी बुद्धिवृत्तिमें अवस्थित होकर प्रकाशमान तत्त्वज्ञानरूप दीप द्वारा उनके अज्ञानान्धकारको नाश करता हूँ॥७॥ मुझमें मनको एकाग्र करके, सर्वदा मुझमें युक्त रहकर एवं परमश्रद्धान्वित होकर जो मेरी उपासना करते हैं वे मेरी सम्मतिमें युक्ततम अर्थात् प्रधान योगी हैं ॥8॥ किन्तु सर्वत्र समबुद्धियुक्त जो व्यक्ति इन्द्रियोंको अच्छी तरहसे संयत करके अनिर्वचनीय, रूपादिविहीन, सर्वव्यापी, अचिन्त्य, स्थिर,नित्य, अविनाशी कूटस्थकी उपासनाकरते हैं.सकलभूतोंके हितकारी वेव्यक्ति मुझेही प्राप्त होते हैं ॥99-१०0॥ अव्यक्तमें जिनका चित्त आसक्त हुआ है उनको अधिकतर परिश्रम होता है क्योंकि मेरे अव्यक्तरूपमें निष्ठा प्राणियोंको कठिनतासे प्राप्त