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श्रीविष्णुगीता।


साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ९० ॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
हे देवाः ! खलु जानीत न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ ९१ ॥
मां हि देवाः ! व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ ९२॥
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुरवं लोकं भजध्वमिममेत्य माम् ॥ ९३ ॥
मन्मनस्काः स्त मे भक्ता याजिनो नमताऽमराः !।
मामेवैष्यथ युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणाः ॥ ९४ ॥
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९५ ॥


और मैं भी उनमें स्थित हूं ॥८॥ यदि अत्यन्त दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य-भक्तियुक्त होकर मेरी उपासना करे तो उसको भी साधुही मानना चाहिये क्योंकि वह उत्तम यत्न कर रहा है ।। ६०॥ अत्यन्त दुराचारी व्यक्ति भी मेरी उपासना करनेपर शीघ्र धर्मात्मा होजाता है और निरन्तर शान्तिको प्राप्त करता है हे देवगण ! मेरा भक्त नाशको नहीं प्राप्त होता है, यह तुम निश्चय जानो ॥६॥ क्योंकि हे देवगण ! पापयोनिसम्भूत स्त्रियां वैश्य और शूद्र ये कोई भी हो मेरा आश्रय लेकर परम गतिको प्राप्त होते हैं ॥९२॥ सुकृतिशाली ब्राह्मण और भक्तिमान् राजर्षिगणकी तो बातही क्या है अतः तुम इस कष्टप्रद और अनित्य लोकको प्राप्त होकर मेरी उपासना करो॥३॥ हे देवगण ! आपलोग मद्गतचित्त, मेरे भक्त और मेरे उपासक हो और मुझे नमस्कार करो, इस प्रकार मत्परायण होकर मनको मुझमे ही युक्त करनेसे मुझहीको प्राप्त होगे ॥ १४ ॥ जिनका चित्त केवल मुझहीमें रत है और जिनका प्राण केवल मेरेसेही अर्पित है, ऐसे व्यक्ति परस्पर मेरे स्वरूपका ज्ञान कराते हुए एवं सदा मेरा कीर्तन करते हुए सन्तोष और शान्तिको प्राप्त होते