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श्रीविष्णुगीता।


भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ ८४॥
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भत्तया नित्ययुक्ता उपासते ॥ ८५ ॥
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥८६॥
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ८७ ॥
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ८८ ॥
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ ८९ ॥
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।


जगत्कारण और नित्यस्वरूप जानकर मेरी उपासना किया करते हैं ॥ ४॥ उनमेंसे कोई कोई सर्वदा मेरा कीर्तन करते हैं, कोई कोई दृढ़निमयसे युक्त होकर प्रयत्नशील होते हैं, कोई कोई भक्तिके साथ प्रणाम करते हैं और कोई कोई नित्ययुक्त होकर मेरी उपासना करते हैं ॥ ५ ॥ अन्य कोई कोई ज्ञानयज्ञ द्वारा भी पूजा करके मेरी उपासना करते हैं, उनमेसे कोई कोई अभेदभावसे, कोई कोई दासभावसे और कोई कोई मुझे सर्वात्मक जानकर नाना प्रकारसे उपासना करते हैं ॥८६॥ अन्य देवताओंकी उपासना न करके मुझे ही स्मरण करते हुए जो उपासना करते हैं, उन नित्य मत्परायण भक्तका योगक्षेम (समाधिविघ्नोंकी निवृत्ति अर्थात् सब आवश्यकीय विषयोंको) को मैं वहन करता हूँ ॥८७॥ जो मुझको भक्तिपूर्वक पत्र पुष्प फल और जल अर्पण करता है मैं उस संयतात्मा द्वारा भक्ति पूर्वक अर्पित वे पत्र पुष्पादि ग्रहण करता हूँ ॥88 ॥ मैं सकल भक्तों में समानरूपसे अवस्थित हूं अतः मेरा प्रिय और द्वेष्य कोई नहीं है किन्तु जो मेरी भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं वे मुझमें स्थित हैं