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श्रीविष्णुगीता।


यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् ॥ ७८ ॥ अनन्यचेताः सततं यो मां स्मराति नित्यशः।
तस्याहं सुलभो देवाः ! नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ ७९ ॥ मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ ८॥ आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्त्तिनोऽमराः !
मामुपेत्य तु गीर्वाणाः ! पुनर्जन्म न विद्यते ॥ ८१॥
अवजानन्ति मां मूढाः सगुणां तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ ८२॥
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीश्चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥ ८३ ॥
महात्मानस्तु मां देवाः ! दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।


करता हुआ मुझको स्मरण करके स्थूल देहको त्याग करके जाता है वह परमगतिरूपी मुक्तिपदको प्राप्त करता है ॥ ७७-७८ ॥ अनन्यचित्त होकर जो मेरा सब समय नियमितरूपसे चिन्तन करता है हे देवतागण ! नित्ययुक्त उस योगीके लिये मैं सुलभ हूँ॥ ७९ ॥ महात्मागण मुझको प्राप्त करके पुनः त्रितापके आलयरूप अनित्य जन्मको प्राप्त नहीं होते क्योंकि वे परासिद्धिरूपी मोक्षको प्राप्त हुए हैं॥०॥ हे अमरगण ! ब्रह्मलोकसे भी आकर सबलोग पुनः पुनः जन्म ग्रहण करते हैं परन्तु हे देवतागण ! मुझको प्राप्त करके पुनर्जन्मकी प्राप्ति नहीं होती है ॥ ८१॥ बुद्धिभ्रंशकारी आसुरी और राक्षसी प्रकृतिको धारण करनेवाले, विफलाशाकारी. विफलकर्मा, अध्यात्मज्ञानरहित, विषयसे चञ्चलचित्त मूर्ख व्यक्तिगण सर्वभूतोंके महेश्वररूपी मेरे परमभावको न जानकर मुझको सगुण देहधारी देखकर अवज्ञा करते हैं ॥२-८३ ॥ परन्तु हे देवतागण ! दैवीप्रकृतियुक्त महात्मागण अनन्यचित्त होकर मुझको