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श्रीविष्णुगीता।


अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ १०२ ॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिराद्देवाः! मय्यावेशितचेतसाम् ॥ १०३ ॥
मय्येव मन आधद्ध्वं मयि बुद्धिर्निवेश्यताम् ।
निवसिष्यथ मय्येव अत ऊर्दध्वं न संशयः ॥१०४॥
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नुथ मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन तत इच्छताप्तुं सुराः ! हि माम् ॥ १०५ ॥ अभ्यासेऽप्यसमर्थैर्मे भूयतां कर्मतत्परैः।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वद्भिः सिद्धिरेष्यते ॥ १०६ ॥ अथैतदप्यशक्ताः स्थ कर्तुं मद्योगमाश्रिताः।
सर्वकर्मफलत्यागं यतात्मानो विधत्त वै ॥ १०७॥
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १०८ ॥


होती है॥१०॥ किन्तु जो एकान्तभक्तियोगद्वारा सब कर्म मुझमें अर्पण करके मत्परायण होकर मेरा ध्यान करते हुए उपासना करते हैं हे देवगण ! मैं मृत्युयुक्त संसारसमुद्रसे मुझमें निवेशित चित्त उन भक्तों का शीघ्र उद्धार करता हूँ ॥१०२-१-३॥मुझमेंही मन स्थिर करो और मुझमेंही बुद्धिसंनिवेश करो तो इससे आगे मुझमेंही निवास करोगे इसमें सन्देह नहीं॥१०॥हे देवगण ! यदि मुझमें चित्तको स्थिर न रख सको तो अभ्यासयोग द्वारा मुझे प्राप्त करनेकी इच्छा करो॥२०५॥ यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ हो तो मेरे कर्मों में निरत हो, केवल मेरे लिये ही सब कर्मोंको करते हुए भी सिद्धि को प्राप्त होगे॥१०॥ यदि इसके करनेमें भी असमर्थ हो तो एकमात्र मेरे शरणागत और संयतचित्त होकर सब कर्म्मोंके फलोंका त्याग करो॥१०७॥ सर्व भूतोंका अद्वेष्टा, मित्र और कृपालु, ममताहीन, निरहङ्कार, सुखदुःखमें समता समझनेवाला, क्षमावान् , सदा सन्तुष्ट, संयतचित्त योगी मेरी