पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/११५

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श्रीविष्णुगीता।


तं विद्याहुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगो निर्विण्णचेतसा ॥ ५० ॥ संकल्पप्रभवान् कामान् त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।। मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ ११ ॥
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ ५२ ॥
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ ५३ ॥
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥५४॥
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥ ५५ ॥


जिस अवस्थामें रहनेसे महादुःख भी विचलित न करसके उस अवस्थाको योग कहते हैं ॥ ४६॥ जिस अवस्थाविशेषमें दुःखका सम्पर्क नहीं रहता है वही अवस्था योगशब्दवाच्य है और निर्विण चित्तसे उसीही योगका अभ्यास करना उचित है ॥५०॥ सङ्कल्पसे उत्पन्न होनेवाली सब इच्छाओको निःशेषरूपसे त्याग करके मन ही द्वारा इन्द्रियगणको सब विषयसमूहसे विशेषरूपसे रोक करके धारणासे वशीभूत की हुई बुद्धि द्वारा मनको आत्मामें निश्चलरूपसे स्थापन करके क्रमशः उपरामको प्राप्त हो और कोई चिन्ता न रक्खे ॥५१-५२॥ स्वभावसे चञ्चल और संयम करनेपर भी चलायमान होनेवाला मन जिस जिस विषयमे जावे उस उस विषयसे उसको खींचकर आत्मामेही स्थिर करना चाहिये ॥ ५३॥ क्योंकि उक्त प्रकारसे जरोगण से रहित प्रशान्तचित्त, निष्पाप और ब्रह्मभावको प्राप्त योगीको परमसुख प्राप्त होता है ॥ १४॥ इस प्रकारसे सदा मनको ब्रह्ममें युक्त करता हुआ निष्पाप योगी अनायास ब्रह्मसंस्पर्शरूपी