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श्रीविष्णुगीता।


सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥ ५६ ॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्त्तते ॥ ५७ ।। आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽमराः ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ५८॥
असंशयं सुपर्वाणः ! मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु भो देवाः ! वैराग्येण च गृह्यते ॥ ५९ ॥ असंयतात्मना योगो दुष्पाप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ६० ॥
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥ ६१॥


सर्वोत्कृष्ट सुखको प्राप्त कर लेता है ।। ५५॥ योगके द्वारा समाहितचित्त और सर्वत्र समदर्शन करनेवाला वह योगी आत्माको सर्व भूतोंमें अवस्थित देखता है और सर्वभूतोको आत्मामें देखता है ॥२६॥ जो सर्वभूतमें अवस्थित मुझको अद्वितीयरूपसे आश्रय करके मेरी उपासना करता है, संसारमें वर्तमान रहनेपर भी वह योगी सर्वथा मुझमेंही अवस्थान करता है ।। ५७ ॥ हे देवगण! जो अपनी उपमासे सब भूतोंको समान देखता हैं और सुखदुःखको समान देखता है वह योगी श्रेष्ठ है, यही मेरी सम्मति है ।। ५८ ॥ हे देवगण ! मन दुर्निग्रह और चञ्चल है इसमें सन्देह नहीं; किन्तु हे देवगण ! अभ्यास और वैराग्य द्वारा मनका निग्रह कियाजाता है ॥५६॥ जिसका चित्त संयत नहीं है मेरा मत है कि उसके लिये योग दुष्प्राप्य हैकिन्तु गुरूपदिष्ट उपाय द्वारा संयतचित्त व्यक्ति यदि प्रयत्नशील हो तो योगको प्राप्त करसकता है ॥ ६०॥ सब योगियों से भी जो श्रद्धावान् व्यक्ति मद्गतचित्तले मेरी उपासना करता है वह अतिश्रेष्ठ योगी है,