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श्रीविष्णुगीता।


युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ ४४ ॥
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ ४५ ॥
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ ४६ ॥
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥ ४७ ॥ सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ ४८ ॥
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन् स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ ४९ ॥


नियमाधीन होकर करते हैं, नियमके साथ निद्रित होते हैं और नियमके साथ जागते हैं उनका योगाभ्यास दुःखका नाश करनेवाला होता है॥४४॥ जब चित्त विशेषरूपसे संयत होकर आत्मामेंही अवस्थान करता है तब सब प्रकारकी कामनाओसे निःस्पृह व्यक्ति युक्त कहाता है ॥४५॥ जैसे वायुरहित स्थानमें दीप विचलित नहीं हुआ करता है, आत्माके उद्देश्यसे योगके अभ्यास करनेवाले संयतात्मा योगीके अचञ्चल चित्तको ऐसाही समझना चाहिये॥ ४६॥ जिस अवस्थामें योगाभ्यास द्वारा संयतचित्त उपरतिको प्राप्त होता है और जिस अवस्थामें आत्मज्ञान द्वारा आत्माको देखते हुए आत्मामेंही उपासक संतुष्ट होजाता है वही योगावस्था है ॥४७॥ जिस अवस्थाविशेषमें युक्त व्यक्ति उस अनिर्वचनीय अतीन्द्रिय और केवल बुद्धिसे करने योग्य परम सुखका अनुभव करता है और जिस अवस्थामें स्थित होनेपर ही यथार्थरूपसे वह अविचलित रहता है ही अवस्थाको योग कहते है ॥४८॥ जिस अवस्थामें अन्य सब अवस्थाओंके लाभको उस अवस्थासे अधिक न समझा जाय और