- भक्तियोगवर्णनम्
- देवा ऊचुः ॥ १॥
हृन्मन्दिराविहारिन् ! भो भक्तानां भक्तवत्सल ! । भवतः प्राप्तये देवा ऋषयो मानवास्तथा ॥२॥ पितरश्चैव हे नाथ ! सर्वे साधनमार्गगाः । कीदृशं मार्गमालम्ब्य भवेयुः सफलाशयाः ॥३॥ कथं विभुर्गुणातीतो भवन्नपि सदा भवान् । जीवोपकारकरणे प्रत्तो भवति स्वयं ॥ ४ ॥ कस्मात्साधनतो लभ्यं भवत्सान्निध्यमीप्सितम् । तत्सर्व कृपया नूनमुपदिश्येमहि प्रभो ! ॥५॥
- महाविष्णुरुवाच ॥६॥
देवाः ! मम यदा भक्ता मत्स्वरूपस्य तत्त्वतः ।।
- देवतागण बोले ॥ १॥
हे भक्तवत्सल ! हे भक्तमनोमन्दिरविहारी ! हे नाथ ! आपको प्राप्त करनेके लिये साधनमार्गगामी सब ऋषि. देवता, मनुष्य और पितृगण किस प्रकारके पथको अवलम्बन करके सफलकाम होंगे ॥२-३॥ आप विभु और गुणातीत होनेपर भी किस प्रकार जीवों के उपकारमें सदा स्वयं प्रवृत्त होते हैं ॥ ४॥ किस साधनसे अभिलषित आपका सान्निध्य प्राप्त हो सकता है, हे प्रभो ! कृपया अवश्य आप हमलोगोंको इन सब बातोंका उपदेश कर ॥ ५॥
- महाविष्णु बोले ॥ ६॥
हे देवतागण ! मेरे भक्तगण जब मेरे स्वरूपको ठीक ठीक जानलेते हैं, तब वे सब ज्ञानी भक्त पराभक्तिके अधिकारी होते