पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१०७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
८७
श्रीविष्णुगीता।


भक्तियोगवर्णनम्
देवा ऊचुः ॥ १॥

हृन्मन्दिराविहारिन् ! भो भक्तानां भक्तवत्सल ! । भवतः प्राप्तये देवा ऋषयो मानवास्तथा ॥२॥ पितरश्चैव हे नाथ ! सर्वे साधनमार्गगाः । कीदृशं मार्गमालम्ब्य भवेयुः सफलाशयाः ॥३॥ कथं विभुर्गुणातीतो भवन्नपि सदा भवान् । जीवोपकारकरणे प्रत्तो भवति स्वयं ॥ ४ ॥ कस्मात्साधनतो लभ्यं भवत्सान्निध्यमीप्सितम् । तत्सर्व कृपया नूनमुपदिश्येमहि प्रभो ! ॥५॥

महाविष्णुरुवाच ॥६॥

देवाः ! मम यदा भक्ता मत्स्वरूपस्य तत्त्वतः ।।


देवतागण बोले ॥ १॥

 हे भक्तवत्सल ! हे भक्तमनोमन्दिरविहारी ! हे नाथ ! आपको प्राप्त करनेके लिये साधनमार्गगामी सब ऋषि. देवता, मनुष्य और पितृगण किस प्रकारके पथको अवलम्बन करके सफलकाम होंगे ॥२-३॥ आप विभु और गुणातीत होनेपर भी किस प्रकार जीवों के उपकारमें सदा स्वयं प्रवृत्त होते हैं ॥ ४॥ किस साधनसे अभिलषित आपका सान्निध्य प्राप्त हो सकता है, हे प्रभो ! कृपया अवश्य आप हमलोगोंको इन सब बातोंका उपदेश कर ॥ ५॥

महाविष्णु बोले ॥ ६॥

 हे देवतागण ! मेरे भक्तगण जब मेरे स्वरूपको ठीक ठीक जानलेते हैं, तब वे सब ज्ञानी भक्त पराभक्तिके अधिकारी होते