पुटमेतत् सुपुष्टितम्
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सर्गसङ्ख्या | विषयः | पुटसङ्ख्या |
५६ | विश्वामित्रनिग्रहः | .... .... ३९५ |
५७ | त्रिशङ्कोः स्वर्गजिगमिषा | .... .... ४०० |
५८ | त्रिशङ्कोश्चण्डालत्वप्राप्तिः | .... .... ४०४ |
५९ | वासिष्ठादीनां शापावाप्तिः | .... .... ४०९ |
६० | त्रिशङ्कोः स्वर्गारोहणम् | .... .... ४१४ |
श्लोकसङ्ख्या | ५६ | |
तेन दृप्तः स चिक्षेप ब्रह्मास्त्रादीन् मुनीश्वरे ॥ | .... | ३९५ |
७८ वसिष्ठस्तानि सर्वाणि जग्रसे ब्रह्मतेजसा। | .... | ३९७ |
ब्रह्मतेजोबलं ज्ञात्वा कौशिकस्तपसे ययौ ॥ | .... | ३९९ |
५७ | ||
७९ एतस्मिन्नन्तरे, त्वासीत् त्रिशङ्कुरिति भूपतिः । | .... | ४०१ |
सशरीरो दिवं गन्तुं स इयेष नराधिपः ॥ | .... | ४०३ |
५८ | ||
८० गुर्वतिक्रमणाच्छप्तः राजा चण्डालतां गतः । | .... | ४०५ |
स दीनः शरणं प्राप विश्वामित्रं तपोधनम् ॥ | .... | ४०७ |
५९ | ||
८१ अङ्गीचकार तद्याच्ञां कारुण्यात् कुशिकात्मजः । | .... | ४०९ |
ततः प्रवर्तितो यज्ञः त्रिशङ्कुस्वर्निनीषया ॥ | .... | ४११ |
८२ तदा शशाप स क्रोधात् वासिष्ठादीन् स्वनिन्दकान् । | .... | ४१३ |
६० | ||
तत्प्रभावात् त्रिशङ्कुस्तु सशरीरो दिवं ययौ ॥ | .... | ४१५ |
८३ अपातयन् त्रिशङ्कुं तं गुरुशापहृतं सुराः । | .... | ४१७ |
कौशिकस्त्वसृजत् क्रोधादन्यं स्वर्गं त्रिशङ्कवे ॥ | .... | ४१९ |
८४ अनुनीतः सुरैः शान्तः, पुनस्तेपेऽथ कौशिकः । | .... | ४२१ |