श्लोखसङ्ख्या |
अवान्तरविषयाः
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२१
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५५ |
इत्येवं विलपन्तीं तां कौसल्यां लक्ष्मणोऽवदत् । |
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२१९
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देवि ! नैवानुजानामि धर्मापेतं नृपं त्वहम् ॥ |
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२२१
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५६ |
राज्यं दातुं कोऽधिकारो भरतायास्य भूपतेः । |
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२२३
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कौसल्याप्यनुमेने तद्वचनं लक्ष्मणेरितम् ॥ |
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२२५
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५७ |
रामः प्रसादयामास मातरं बहुधा तदा । |
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२२७
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लक्ष्मणं चापि धर्मात्मा सान्त्वयामास राघवः ॥ |
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२२९
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५८ |
धृतिं पुत्रस्य विज्ञाय कौसल्या मूर्छिताऽभवत् । |
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२३१
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तथाऽवस्थां तु तां दृष्ट्वा रामोऽप्युद्वेजितोऽभवत् ॥ |
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२३३
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५९ |
अथापि बोधयामास मातरं धर्ममात्मवान् । |
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२३५
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२२
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प्रसाद्य मातरं रामो लक्ष्मण त्वेवमब्रवीत् ॥ |
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२३७
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६० |
निगृह्य शोकं, सौमित्रे ! धर्म एव स्थितो भव । |
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२३९
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परलोकभयात् भीतो निर्भयोऽस्तु पिता मम ॥ |
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२४१
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६१ |
मत्प्रवासे त्वहं हेतुं नान्यं दैवात्समर्थये । |
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२४३
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कश्च दैवेन, सौमित्रे ! योद्धुमुत्सहते पुमान् ॥ |
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२४५
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६२ |
अतः, लक्ष्मण ! दुःखं मा कार्षीः लक्ष्म्या विपर्यये । |
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२४७
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२३
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इति ब्रुवति रामे तु लक्ष्मणः पुनरब्रवीत् ॥ |
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२४९
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६३ |
किं नाम कृपणं दैवं, राम ! त्वममिशंससि । |
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२५१
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विक्लवो वीर्यहीनो यः स दैवमनुवर्तते ॥ |
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२५३
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६४ |
वीराः संभवितात्मानो न दैवं पर्युपासते । |
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२५५
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अहमद्यैव तद्दैवं पौरुषेण निवर्तये ॥ |
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२५७
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६५ |
राज्यं च तव रक्षेयं वारयेयं तथा रिपून् । |
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२५९
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७ |
इति ब्रुवन्तं सौमित्रिं सान्त्वयामास राघवः ॥ |
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२६१
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