पृष्ठम्:श्रीमद्बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् (सुबोधिनीटीकासहितम्).pdf/५२३

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रश्मिफलवर्येनाध्यायः ४ घिमित्रमित्रनवांशके ॥ ९ ॥ द्रेष्काणेऽपि च होरायां त्रि- शांशे च क्रमात्तथा ॥ अष्टना इयब्धिषट्समभक्ता युक्ता- स्तुरश्मयः ॥१०॥अरावध्यरिनीचे च वैयखिलहीनका।। टीका | स्थितत्वात द्वितीयो नीचांशसंस्कारोषि प्राप्तः तस्मिन्सति रञ्यभावः शुन्य- फलकत्वादिति एवं अरावध्यरि च चोध्यम् ॥ ९ ॥ १० ॥ अथ रश्मीप्रकारां तरेण स्पष्टयति उद्देत्यादित्रयोदशलोकपर्यंतम् | अंशपना गति प्रार वांकोत्पादितरश्मयः त्रिगुणं तत्सर्व त्रिगुणं प्रोतं त्रिगुणाः स्पष्टस्युरिय र्थ | रश्मिपती स्वत्रिकोणे मूलत्रिकोणे सति मूलधुवां कोत्पादित सर्व दिसं- भाषा ।

कलादिकमें देखके नवमांश, द्वेष्काण, होरा, त्रिशांशमें देखना कि त्रिकोण में राशि है, या स्वक्षेत्र है, या अधिभित्री राशि है, मित्रकी राशिहै पीछे पहिलेका उपरमिफलकूटकरके मूल त्रिकोणका नवर्माशादिक वर्ग होने तो दोसे भा- गलेना, स्त्रक्षेत्रका वर्ग होबे तो चार भाग लेना, अधिभित्रका वर्ग हांबे तो छः से भाग लेना, मित्रका क्षेत्र ती तालसे भाग लेना. मूलर्गममें मिला तो अपने अ म.न.मा. त्रिकं . थकाणश्चकम्. गुन्न , ब. राथ. श.चो. ल.. च॑. मं..' श. डा. श्री. ४/५११४ १३१७१ 128 jule 2 C २५ १३४७४३३६.८४७६ 5 = [८१०] अथ दोरारहिमचक्रम् अग त्रिंशांणरियनम्, सु. चं. . . . . . . . . . . ग्रा १७७८

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पने वर्गकी उच्चरश्मी आती है, जो कभी पूर्वीक्त ग्रहो, नवमांशादेव शत्रु- राशि होवे तो चारका भाग लेके मूलरश्मेिं हीन करना, अति तो दोक्त अंश हीन करना, नीच राशि हवे तो शून्य मांडना || ९ १० १ अब पूर्वोक्त रश्मिबलकूं विशेषकरके स्पष्ट करते हैं. अंशपति उच्चका वे तो भूत्रांकोंसे पझिये ५५