पृष्ठम्:श्रीमद्बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम् (सुबोधिनीटीकासहितम्).pdf/४४१

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

श्रीः । अथ बृहत्पाराशरहोरोत्तरभागः सटीक:- भाषाटीकासहितश्य प्रारम्यते । टीकाकर्तुर्मंगलाचरणं वंशादिवर्णनं च । श्रीगणेशाय नमः ॥ बन्दे राधारमणं त्रिजगत्परिपालनाय चिन्मायाम || माद्यामाश्रित्यादौ यः समुणो माति चिन्मयः साक्षात ॥ १ ॥ निर्विज्ञाय गणेशः सकलागम मूलहेतृरीशो यः ॥ ज्ञानोदयाय शक्तिवतवसाय मास्क रो भगवान् ॥ २ ॥ विष्णुर्धर्मसमृद्धयॆ जातस्त्वेकोपि पंचधा तस्मै १॥ अति नतबुद्धया सतत नतिशतमास्तां सुमंगलो मेऽसौ ॥ ३ ॥ सूर्य ज्योतिष्मतां श्रेष्ठं पराशरमहामुनिम् || नत्वा तदुत्तिःवोधाय टीकां कुर्वे यथामति ॥ ४ # आसीजयपुरे श्रीमान्नीतिज्ञः सर्वशास्त्रविद् || दध्यइडन्ययवार्थीन्द्र राजमा- मंगलाचरण भाषा | श्रीगणेशायनमः ॥ श्रीसरस्वत्यैनमः॥ में आदी कहते हैं प्रथम राधारमण जो श्री कृष्ण उनकूं वंदे नमस्कार करता हूं वे कैसे हैं जो भगवान् श्रीकृष्ण तीन अस त्के पालन करनेके अर्थ अपनी ज्ञानशक्तिका आश्रय करके स्वतः प्रत्यक्ष ज्ञान रूप हैं सगुण शोभते हैं ॥ १ ॥ जो श्रीकृष्ण विघ्ननाशार्थ गणपतिरूप संपूर्ण खालके निर्माणार्थ मूलभूत शिवरूप, ज्ञानोदयके अर्थ शक्तिरूप, अज्ञानधिकार- नाशार्थ सूर्यरूप ॥ २ ॥ धर्मसमृद्धयर्थ विष्णुरूप धारण करते भये ऐसे एक जो भगवान् पंचस्वरूप होते भये उनकूं अति नम्रबुद्धिसे निरंतर मेरेशन नं- हमस्कार हो और मेरेकू मंगलरूप हों ॥ ३ सर्व ज्योतिर्गणो श्रेष्ठ जो सूर्य और महाबुद्धिमान् जो पराशरमुनि उनकूं नमस्कार करके श्री पराशरोक्नो- वार्थ में यथामति भाषाढीका करताहूं ॥ ४ ॥ जयपुर नाम करके धन्य देश (हुंडाढ़) में प्रसिद्ध नगर हैं वहां श्रीमान्, नीतिमार्ग में निपुण, सकल झोंके जान वारे दथ्य ऋषिका वंशरूप जो समुद्र उससे जैसे चंद्र राजमान्य दिवा -